दैनिक प्रार्थना

हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो


दैनिक प्रार्थना

है आद्य्शक्ति, जगत्जन्नी, कल्याणकारिणी, विघ्न्हारिणी माँ,
सब पर कृपा करो, दया करो, कुशल-मंगल करो,
सब सुखी हों, स्वस्थ हों, सानंद हों, दीर्घायु हों,
सबके मन में संतोष हो, परोपकार की भावना हो,
आपके चरणों में सब की भक्ति बनी रहे,
सबके मन में एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव हो,
सहानुभूति की भावना हो, आदर की भावना हो,
मिल-जुल कर शान्ति पूर्वक एक साथ रहने की भावना हो,
माँ सबके मन में निवास करो.

Saturday 31 May, 2008

आरक्षण का राक्षस सब को लील जाएगा

अब खून मुंह लग गया है आरक्षण के राक्षस को. वह सड़कों पर निकल आया है. आरक्षण की अंगीठी पर वोटों की रोटी सेंकने वाले न जाने कितनों को मरवायेंगे. ख़बर है कल दो जानें और गईं. पाँच घायल अस्पताल में दाखिल हैं. यह भी ख़बर है कि एक पुलिसवाला भी मारा गया और एक गंभीर रूप से घायल अस्पताल में है. हिंसक आंदोलनों का यही परिणाम होना था. आज गुर्जर हैं, कल कोई और होगा.

क्या आरक्षण से लाभान्वित लोग आपस में मिल बैठ कर फैसले नहीं कर सकते? जो भी आरक्षण आज मिल रहा है और उस से जो भी लाभ मिल रहे हैं, उन्हें न्यायोचित आधार पर आपस में बांटा जा सकता है. इन ६० वर्षों में जिन्हें लाभ मिल चुका है वह अलग हो जाएं. इस बात को सुनिष्चित किया जाए कि हर व्यक्ति को आरक्षण का लाभ मिले. अगर लोग ईमानदारी से सोचें और फैसले करें तो धीरे-धीरे सब को आरक्षण का लाभ मिल सकेगा.

समय से चेत जाना अच्छा होता है. अभी भी समय है. हमें लाभ मिले, सही है. पर दूसरों को भी लाभ मिले, यह भी हमें ही सुनिष्चित करना है. चेत जाइए वरना आरक्षण का यह राक्षस सब को लील जायेगा.

Friday 30 May, 2008

कुछ चुटकुले

पापा - 'बेटी झूठ क्या होता है?'
बेटी - 'वह जो बड़े लोग बोलते हैं'.
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पहला मित्र - 'क्या तुमने कभी झूठ बोला है?'
दूसरा मित्र - 'नहीं'
पहला मित्र - 'मैं समझ गया'.
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बेटी - 'पापा, यह लिव-इन-रिलेशनशिप क्या होती है?'
पापा - 'पता नहीं बेटा'
बेटी - 'बताओ न पापा'
पापा - कैसे बताऊँ, मुझे कोई अनुभव नहीं है'
बेटी - 'ऊँ ऊँ ऊँ'
पापा - 'रोओ मत बेटा, अपनी मामा से पूछ लो'

Thursday 29 May, 2008

एक बार, दो बार या तीन बार ही क्यों, हर बार क्यों नहीं

"जेसिका, मट्टू और अब नितीश - न्याय की हेट-ट्रिक", हैं शीर्षक एक समाचार का जो भारत के एक लोकप्रिय अखबार मैं छपा है. इसे पढ़कर जो पहला ख्याल मेरे दिल मैं आया वह था नितीश के परिवार का जिसे आखिरकार न्याय मिला. उनके प्यारे नितीश के हत्यारों को मुजरिम ठहराया अदालत ने. अब शुक्रवार को उन्हें सजा सुनाई जायेगी.

दूसरा ख्याल जो मेरे दिल मैं आया वह था - यह न्याय एक बार, दो बार या तीन बार ही क्यों, हर बार क्यों नहीं और हर केस में क्यों नहीं. फ़िर तो ख्यालों की झड़ी लग गई. क्या केवल हाई प्रोफाइल केसों में ही न्याय मिलेगा? क्या नागरिक और मीडिया केवल ऐसे केसों में ही खुलकर मुखर स्वरों में न्याय की गुहार करेंगे? क्या कभी यह लोग एक आम आदमी के लिए इस तरह न्याय मांगेंगे? क्या अदालतें एक गरीब विधवा के बेटे की हत्या पर भी ऐसा फ़ैसला देंगी? यह वह सवाल हैं जो हर किसी के मन में उठ रहे होंगे पर जिनका एक निश्चित उत्तर किसी के पास नहीं होगा. समय ही इन सवालों का जवाब देगा.

भारतीय न्यायपालिका अक्सर ऐसे इम्तहान से गुजरी है. कभी पास हुई है और कभी फेल. हम सभी यह चाहते हैं कि इस इम्तहान में वह अब्बल नंबरों से पास हो.

Wednesday 28 May, 2008

जैसा बोओगे बैसा ही काटोगे

शोभा जी की एक रचना पढ़ी,
मैं नास्तिक नहीं हूँ
इस रचना ने मेरे मन में कुछ भाव जगा दिए. यह भाव बन गए एक नई रचना.

मैं कभी मूक नहीं होता,
उपेक्षा नहीं करता किसी की,
तुम्हारी वाणी में बोलता रहता हूँ,
जब कोई मुझे पुकारता है प्रेम से,
मैं दौड़ा आता हूँ,
जब भी कभी कोई द्रोपदी या गजराज पुकारेंगे,
मैं आऊँगा।

जो तुम्हें मिलता है इस संसार में,
वह फल है तुम्हारे कर्मों का,
पिछले जन्मों में किए थे तुमने जो,
जैसा बोया है बैसा ही काट पाओगे,
यह नियम है,
जिसे तुम क्या,
मैं भी नहीं तोड़ सकता.

झांको अपने अन्दर प्रेम और विश्वास से,
मैं नजर आऊँगा तुम्हें,
मैं तुम में हूँ, तुम मुझसे हो,
जब अलग महसूस करते हो ख़ुद को,
तभी आस्था डगमगाती है तुम्हारी,
आ जाओ मेरी शरण में जैसे अर्जुन आया था,
मैं तुम्हें भय और दुःख से मुक्त कर दूँगा.

Tuesday 27 May, 2008

लाशों पर तांडव करने वालों कुछ तो शर्म करो

गुर्जर आंदोलन - कितना सही, कितना ग़लत?

हो सकता है गुर्जरों की मांग सही हो पर उसे मनवाने के लिए जिस तरह आंदोलन हो रहा है वह सही नहीं है. हिंसा करके अपनी बात अगर गुर्जरों ने मनवा भी ली तो यह समाज और राष्ट्र के लिए कोई अच्छी मिसाल नहीं होगी. प्रजातन्त्र में सब को अपनी बात कहने का पूरा हक़ है, पर हिंसक तरीके अपनाने का किसी को कोई हक़ नहीं. यह तो अपराध है. चालीस लोगों की जान जा चुकी है. पर किसी को कोई दुःख नहीं है. सब राजनीति कर रहे हैं. कल मैंने कुछ देर इस आंदोलन की टीवी रिपोर्टिंग देखी. मन बहुत दुखी हुआ. क्या कर रहे हैं यह लोग?

किसी आंदोलनकारी के चेहरे पर कोई दुःख नजर नहीं आया. वह तो हँसते हुए रेल की पटरियाँ उखाड़ते हुए फोटो खिंचवा रहे थे. एक सज्जन ने तो यह कहा कि अगर एक लाख गुर्जर भी मर जायेंगे तो भी आंदोलन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. जो मर गए हैं उनकी लाशों पर राजनीति हो रही है. लाशें सड़ रही हैं पर यह नेतागिरी कर रहे हैं. अरे जीवन में तो शायद उन्हें चैन मिला नहीं, अब मरने के बाद तो उन्हें चैन से रहने दो. उनके धर्म के अनुसार उनके शरीरों का अन्तिम संस्कार होने दो. प्रदेश सरकार केन्द्र को चिट्ठी लिख चुकी है. अब इस समय इस से आगे प्रदेश सरकार क्या करेगी? लेकिन आग लगाने वालों की खूनी प्यास शायद अभी नहीं बुझी है. मीडिया भी जम कर आग में घी डाल रहा है.

राषट्रीय संपत्ति को नष्ट करना, सड़क और रेल मार्गों को अवरुद्ध करके देश को आर्थिक नुकसान पहुँचाना, प्रदेश की औद्योगिक इकाइयों को जबरन बंद कराने की धमकी देना, यह सब राष्ट्र के प्रति अपराध है. केन्द्र और प्रदेश सरकारें, राजनितिक पार्टियाँ, आन्दोलनकारियों के नेता, मीडिया सब गैरजिम्मेदारी से काम कर रहे हैं. किसी को न तो गुर्जरों की चिंता है, न प्रदेश और देश की. आने वाले चुनाव और वोट बस यही उनका उद्देश्य है. जो मर गए हैं उनके परिवार जीवन भर तड़पेंगे, पर नेता लोग मजे करेंगे.

Monday 26 May, 2008

लालू जी और मेरी जेब

मैं जब भी लालू जी की तस्वीर देखता हूँ या उनका नाम पढ़ता या सुनता हूँ, मेरा हाथ तुरंत मेरी जेब पर चला जाता है. मुझे हर समय यही डर लगा रहता है कि लालू जी रेल को फायदे में लाने के लिए मेरी जेब काट लेंगे. वह तो जगह जगह हार पहनते घूम रहे हैं और मेरी जेब हल्की और हल्की होती जा रही है.


पहले में जब भी दिल्ली से आगरा या चंडीगढ़ जाता था, दिल्ली में ही जाने के और वापसी के टिकट खरीदता था. पर जब से लालू जी की मेहरबानी हुई वापसी के टिकट में १५ रुपए ज्यादा लगने लगे. रेंगती रेलों को सुपर फास्ट कह कर यात्रिओं की जेब हल्की करना पता नहीं कौन से मेनेजमेंट का मन्त्र है? तत्काल के नाम पर यात्रिओं की जम कर जेब काटी जा रही है. सुरक्षा और समय की पाबन्दी के नाम पर लालू जी और लालू जी की रेल जीरो हैं. रेल कब आएगी और कब जायगी, यह आ जाने और पहुँच जाने के बाद ही पता लगता है. यात्री सुरक्षित पहुँच जायेंगे इनके बारे में भी पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता.
रेल सेवाएं सरकार उपलब्द्ध कराती है. एक सरकारी महकमा होने के नाते रेल विभाग का मुख्य उद्देश्य एक बहुत अच्छे स्तर की सेवा प्रदान करना होना चाहिए, प्रोफिट कमाना नहीं होना चाहिए. रेलों को नो-प्रोफिट-नो-लोस के सिद्धांत पर चलाना चाहिए. पर लालू जी की रेल केवल फायदा कमाने के लिए चलती है. यात्रिओं को एक समय-बद्ध, सुरक्षित, आरामदायक सेवा मिले इस से लालू जी को कोई मतलब नहीं है.

दिल्ली हाई कोर्ट ने एक पेनल बनाईं जिसको रेल प्लेटफार्म्स पर सप्लाई किए जा रहे खाद्य पदार्थों की क्वालिटी की जांच करके रिपोर्ट देने को कहा गया. तीन रेल स्टेशन, पुरानी और नई दिल्ली और हजरत निजामुद्दीन इस जांच के लिए चुने गये. जांच के बाद एक पेनल सदस्य ने कहा कि आज के बाद में रेल द्वारा सप्लाई की गई कोई बस्तु न तो खा सकूंगा और न ही पी सकूंगा. किचिंस में चूहों और क्राक्रोचों कि भरमार थी. कोई भी सिस्टम नहीं था न कच्चा माल खरीदने और स्टोर करने का, खाना बनने का या सर्व करने का. कर्मचारिओं का कोई मेडिकल चेक अप नहीं होता था. ले दे कर जांच रिपोर्ट बहुत ही गड़बड़ थी. एक दिन इस के बारे में अखबार में ख़बर आई और तुरंत ही गायब हो गई. मीडिया ऐसे मौकों पर सरकार की बहुत मदद करता है. कोका कोला पर शोर मचाने वाले लालू जी के खाद्द्य और पेय पदार्थों के बारे में चुप रहे.

आई आर सी टी सी भारतीय रेलों में खाद्द्य और पेय पदार्थों की सप्लाई के लिए ठेके देता है. एक बार में कालका शताब्दी में सफर कर रहा था. जो खाना सर्व किया गया बहुत ही ख़राब था - ठंडा और बेजायका. पता नहीं ग़लत है या सच है - एक सज्जन ने मुझे बताया कि एक शताब्दी या राजधानी एक्सप्रेस में यह ठेका एक करोड़ की रिश्वत देने पर मिलता है. देहरादून और कालका शताब्दी का मेरा अनुभव मुझे इसे सच मानने को मजबूर करता है. दो बार मैंने शिकायत की पर कोई कार्यवाही नहीं की गई.

लालू जी की एक और देन है रेल यात्रियों को. अब यात्रियों की शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. मैंने ताज एक्सप्रेस में तीन बार टीटी द्वारा सप्लाई की गई शिकायत पुस्तिका में शिकायत लिखी पर कुछ नहीं हुआ. देहरादून शताब्दी, कालका शताब्दी, लखनऊ शताब्दी और श्रमजीवी एक्सप्रेस में लिखी शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

अभी पिछले दिनों मैंने हावड़ा-एहमदाबाद एक्सप्रेस में यात्रा की. तत्काल में टिकट ख़रीदा. मुझे झरसागुडा तक जाना था पर एहमदाबाद तक टिकट खरीदना पड़ा. बहत तगड़ी जेब कटी. वापसी आजाद हिंद एक्सप्रेस से हुई. इसमें भी तत्काल से टिकट लिया. पर इस बार एहमदाबाद से नहीं, राजनांदगांव से किराया भरना पड़ा. यहाँ भी जेब कटी.

अब बात करें इन सुपरफास्ट एक्सप्रेस रेलों की समय पाबन्दी की. हावड़ा से रेल ११५५ पर छूटती है. पर उस रात यह रेल १२३० के बाद प्लेटफार्म पर आई. बहुत गर्मी थी उस रात. हालत ख़राब हो गई. करीब दो घंटा देर से झरसागुडा पहुँची. जिस मीटिंग के लिए मैं गया था वह दो घंटा देर से शुरू हो पाई. लालू जी के कारण लगभग ३५ लोगों को परेशानी हुई. वापसी में आजाद हिंद एक्सप्रेस दो घंटा लेट आई और हावड़ा पहुँचते पहुँचते चार घंटे से ज्यादा लेट हो गई. ०३५५ की जगह यह ०८३० के बाद हावड़ा पहुँची. मेरी दिल्ली की फ्लाईट ०८२० पर थी, वह छूट गई. किराया वापस नहीं हुआ. दूसरी फ्लाईट में टिकट लेना पड़ा. लालू जी की मेहरबानी से ४५०० रुपए का चूना लगा और देर से घर पहुँचा सो अलग.

लालू जी की आज कल बहुत तारीफ़ हो रही है. उन्होंने घाटे में चल रही रेल को फायदे में ला दिया. मेनेजमेंट वाले उन्हें हार पहना रहे हैं. पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव से भारतीय रेल एक बहुत ही घटिया रेल सेवा है. इस में यात्रियों के लिए कुछ नहीं है. काश भारत में एक रेल सेवा और होती. कोई तो विकल्प होता यात्रियों के सामने. आपने जाना है तो लालू जी की रेल ही लेनी होगी. जेब कटवा कर देर से पहुचंगे.

Sunday 25 May, 2008

दोहरे मापदंड प्रजातंत्र पर कलंक हैं

पिछले कई दिनों से पढ़ रहा हूँ बिनायक सेन के बारे में,
वह जेल में हैं इस संदेह पर कि वह माओवादी हैं,
कुछ समय पहले मनमोहन सिंह जी ने कहा था,
माओवाद से देश को सब से ज्यादा खतरा है,
एक बात नहीं समझ पाया मैं,
वह ऐसा आतंकवाद के बारे मैं क्यों नहीं कहते,
उनके हिसाब से उनकी सबसे बड़ी चिंता माओवाद है,
आतंकवाद उन्हें चिंतित क्यों नहीं करता?
एक व्यक्ति को माओवादी कह कर बंद कर दिया जाता है,
पर एक सजा मिल चुके आतंकवादी को सजा नहीं दी जाती,
सरकार उस की एक दामाद की तरह खातिर करती है,
चुनाव में हारे पर फ़िर भी गृहमंत्री बना दिया गए,
पाटिल जी इस आतंकवादी को बचाने में लगे हैं,
कभी मर्सी पेटीशन, कभी बना देते हैं उसे पाकिस्तानी,
करते हैं तुलना उस की सरबजीत के केस से,
क्या यह दोहरे मापदंड हमारे प्रजातंत्र पर कलंक नहीं हैं? ment

Friday 23 May, 2008

तकलीफ में रहने की आदत हो गई है

एक सर्वेक्षण के अनुसार जब लोगों से यह सवाल पूछा गया कि अगर आज लोक सभा का चुनाव हो जाए तब आप किसे वोट देंगे? अधिकतर लोगों ने कहा कांग्रेस को.

हमें पता चला कि हमारे एक मित्र से भी यह सवाल पूछा गया था. उन्होंने ने भी कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था. हम ने उनसे पूछा ऐसा क्यों. मित्र ने कहा, "यार तकलीफ में रहने की आदत हो गई है".

आम के पेड़ पर आम नहीं बबूल उगा

बचपन में पढ़ा था कि अगर बबूल बोओगे तो आम कैसे खाओगे. अगर आम बोएँगे तब तो आम खायेंगे. पर नवादा, बिहार के टोला गाँव में उस ने आम बोया था पर उगा बबूल. यह कहानी है ७० वर्षीय कलावती देवी की.

कलावती ने एक नए जीवन की नींव रखी. नए पौधे को नौ महीने तक अपनी कोख में रख के सींचा. फ़िर उसे इस दुनिया में लाई. पाल पोस कर बड़ा किया, अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाया. जब शरीर अशक्त हो गया और बेटे पर पूरी तरह से आश्रित हो गई तो बेटे ने कन्नी काट ली. इस दुःख से दुखी कलावती कुछ रिश्तेदारों के सामने अपनी व्यथा कहने से न रुक पाई - उस का बेटा उसे भर पेट खाना नहीं देता; उसके पास बस एक साड़ी है जो जगह जगह से फट गई है, पर वह दूसरी साड़ी लाकर नहीं देता; वह उसे एक गुलाम की तरह रखता है.

बेटे महेंद्र को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से से पागल हो गया और उसने अपनी माँ को पीट-पीट कर मार डाला. वहशी बने बेटे ने अपनी जन्मदात्री माँ को इतना पीटा की उसकी एक आँख बाहर निकल आई और एक बाजू दो टुकड़ों में टूट गया. महेन्द्र और उसकी पत्नी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है.

बेचारी कलावती ने प्यार से आम बोया था पर उगा बबूल.

Thursday 22 May, 2008

टिप्पणी करने वालों का उत्साह बढ़ाएं

लोग ब्लाग बनाते हैं, उन पर अपने लेख पोस्ट करते हैं. कोशिश करते हैं कि लोग उन के ब्लाग्स पर आयें. इस के लिए वह चिट्ठाजगत, ब्लाग्वानी , नारद पर अपने ब्लाग्स रजिस्टर करते हैं. वह चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके लेख पढ़ें और अपनी टिप्पणियां पोस्ट करें. लोग ऐसा करते भी हैं. वह आपके ब्लाग्स पर आते हैं. आपके लेखों की सराहना करते हैं. आपके द्वारा उठाये गए मुद्दों पर अपने विचार पोस्ट करते हैं. पर क्या आप लोग इन टिप्पणिओं का जवाब देते हैं? क्या आप उन के ब्लाग्स पर जाते हैं और अपनी टिप्पणी पोस्ट करते हैं?

ब्लाग लेखन को युक्तिपूर्ण और सकारात्मक बनाने के लिए यह जरूरी है कि चिट्ठाकार एक दूसरे के ब्लाग्स पर खूब आयें जायें. ज्यादा से ज्यादा ब्लाग्स पर टिप्पणी करें. दूसरे चिट्ठाकारों का उत्साह वर्धन करें. मुद्दों पर बहस होना जरूरी है. मुद्दों के बीच में व्यक्ति को न लायें. इस से मुख्य मुद्दा पीछे चला जाता है और अनावश्यक टिप्पणियां पोस्ट होनी शुरू हो जाती है. कुछ चिट्ठाकार व्यक्तिगत टिप्पणियां भी करना शुरू कर देते है. इस से बहस की समरसता नष्ट हो जाती है और बिभिन्न विचारों का आदान प्रदान रुक जाता है. ब्लाग्स ज्ञान और जानकारी को बांटने का एक सशक्त माध्यम हैं. हमे इस का अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहिए.

मेरी कोशिश यह रहती है कि मैं अपने ब्लाग्स पर टिप्पणियां करने वालों के ब्लाग्स पर जाऊं और उनके द्वारा उठाये गए मुद्दों पर अपने विचार रखूँ. मैं अक्सर चिट्ठाजगत, ब्लाग्वानी , नारद पर भी जाता हूँ और कोशिश करता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा ब्लाग्स पर जाऊं. मेरा यह मानना है कि जो चिट्ठाकार मेरे ब्लाग्स पर आते हैं और अपनी टिप्पणियां पोस्ट करते हैं उन का आभार प्रकट करना मेरा कर्तव्य है. आभार प्रकट करने का सब से अच्छा तरीका है, उन के ब्लाग्स पर जाना और उन के द्वारा उठाये गए मुद्दों पर अपने विचार पोस्ट करना.

वन्धू चिट्ठाकारों, स्वागत हे आपका इस विषय पर अपने विचार प्रकट करने के लिए.

दरबाजा दिखाओ इन मंत्रियों को - भाग ३

इस से पहले दो मंत्री ख़ुद को योग्य पात्र साबित कर चुके हैं केन्द्रीय मंत्री परिषद् से बाहर जाने के लिए. इन्हें अब तक दरवाजा दिखा देना चाहिए था. पर न जाने क्यों यह सज्जन, अर्जुन सिंह और रामादोस अभी भी मंत्री बने हुए हैं. अब इस लाइन में शामिल हो गए हैं शिव राज पाटिल. इस सज्जन को तो मंत्री मंडल में होना ही नहीं चाहिए था क्योंकि यह पिछले लोक सभा चुनाव में हार गए थे. मतलब यह कि जनता ने इन्हें अस्वीकार कर दिया था. पर भारत के प्रथम मनोनीत प्रधानमंत्री ने अपने स्पोंसर के आदेश पर इन्हें गृह मंत्री बना दिया था. यह भारत की जनता का अपमान था पर इन राजनीतिबाजों को इस में कोई शर्म नहीं आई.

इन्हें कम दिखाई देता है. इनका सोच भी गड़बड़ा गया है. इन्हें एक हिन्दुस्तानी नागरिक पाकिस्तानी नजर आता है. या फ़िर इनके सोच के अनुसार कश्मीरी पाकिस्तानी होते हैं. इनके अनुसार सरबजीत की पाकिस्तानी जेल से रिहाई मुश्किल हो जायेगी अगर एक हिन्दुस्तानी अफ़ज़ल को फांसी दे दी गई. अफ़ज़ल एक हिन्दुस्तानी है और उसे पार्लियामेन्ट पर हमला करने के अपराध में मौत की सजा हुई है. एक हिन्दुस्तानी को हिन्दुस्तान में सजा देने पर पाकिस्तान को क्या आपत्ति हो सकती है यह तो बस यह मंत्री जी ही समझ सकते हैं.

एक समाचार पत्र के अनुसार यह 'foot in mouth' का केस है. अब ऐसा इंसान मंत्री बना हुआ है तो यही कहा जा सकता है की इस देश में 'देश के लिए बफादारी' कोई मायने नहीं रखती 'एक परिवार के लिए बफादारी के सामने'. कल देर रात, पाकिस्तानी और भारतीय अधिकारियों ने इस्लामाबाद में कहा कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री की अगले महीने होने वाली भारत यात्रा से पहले सरबजीत को रिहा किया जा सकता है. पर इन सज्जन ने सरबजीत का केस अफ़ज़ल के साथ लिंक कर दिया. क्या वोट की राजनीति के लिए सरकार एक हिन्दुतानी को पाकिस्तान में फांसी पर लटकवा देगी? ऐ भाई जल्दी से इस मंत्री को दरबाजा दिखाओ.

Wednesday 21 May, 2008

मनमोहन जी की दिल्ली - कुछ तस्वीरें

कुछ दिन पहले मनमोहन जी ने शीला जी की पीठ थपथपाई और धन्यवाद दिया कि उन्होंने मनमोहन जी को रहने के लिए एक ऐसी दिल्ली दी है जो भारत में सबसे सुंदर, साफ-सुथरी और हर-भरी है. वह प्रधान मंत्री है, उन्होंने जो कहा है जरूर सही होगा. हो सकता यह गुस्ताखी हो पर दिल्ली ki कुछ तस्वीरें आप भी देख लीजिये:











प्रथम दृष्टि में प्रेम

love at first sightएक फ़िल्म आई थी, 'चमेली की शादी'. हीरो था ब्रम्हचारी, अखाड़े में कुश्ती लड़ता था. गुरु जी ने कहा था, चालीस का होने से पहले नारी के चक्कर में पड़ना तो दूर उसके बारे में सोचना भी मत. हीरोइन के पिता की कोयले की टाल थी. एक असली व्यापारी के नाते धंदे में कुछ न कुछ गड़बड़ करना तो जरूरी था. हीरो टाल के मालिक कल्लूमल जी से इस बारे में बात करने गया. वह कल्लूमल जी को आवाज दे रहा था कि उसे मेज के नीचे से एक हाथ ऊपर उठता दिखाई दिया. उसने कहा, 'क्या कल्लू मल जी डर के मारे हाथ में चूड़ियां पहन लीं?' उसने हाथ पकड़ कर ऊपर खींचा. हाथ के साथ एक लड़की ऊपर उठ आई.

लड़के और लड़की ने एक दूसरी की आंखों में झाँका और प्रथम दृष्टि में प्रेम हो गया. हीरो को चक्कर आया और नीचे गिर गया. लड़की ने उसे पकड़ कर ऊपर उठाया. उसके बाद पहले प्यार की पहली बात शुरू हुई.

लड़की - तू ......... का छोटा भाई है न?
लड़का - हां, और तू कल्लूमल की बेटी चमेली है न?
लड़की ने सर हिलाया.
लड़का - मैंने हायर सेकंडरी किया है.
लड़की - पता है, थर्ड डिवीजन में.
लड़का - फेल तो नहीं हुआ.
लड़की - में फेल हुई तो तुझे क्या?
लड़का - में भी एक बार आठवीं में फेल हुआ था.
लड़की - में आठवीं में चार बार फेल हुई थी.
लड़का - अब किस क्लास में है?
लड़की - आठवीं में.

कैसी लगी आपको यह प्रथम दृष्टि में प्रेम की प्रथम बातचीत? फ़िल्म के आख़िर में सब के विरोध के बाबजूद दोनों की शादी हो जाती है. क्या हकीकत में भी होता है प्रथम दृष्टि में प्रेम? क्या आपको हुआ था प्रथम दृष्टि में प्रेम?

यह तरबूज बेचने वाले

गर्मी आई और जगह जगह दिल्ली के फुटपाथों पर तरबूजों की दुकानें सज जाती हैं. तरबूज बेचने वाले यह कलाकार यू पी के शहरों से आते है. मेरे घर के सबसे पास जो तरबूज वाला है वह बरेली से आया है. बरेली जहाँ से प्रियंका चोपड़ा आई है.

मैं सुबह घूमने जाता हूँ. यह तरबूज वाला रास्ते में पड़ता है. वह नारियल भी बेचता है. मेरी उसकी जान पहचान नारियल की बजह से हुई. एक नारियल का मीठा पानी मन को ताजा कर देता है. इस पानी में मिलावट भी नहीं की जा सकती. ऐसा कह कर में मिलावट करने वाले कलाकारों को चेलेंज नहीं कर रहा हूँ. में जानता हूँ कि जिस दिन उनकी नजर नारियल पानी पर पड़ गई, यह पानी भी पीने लायक नहीं रहेगा. भारतीय मिलावटखोरों का मुकाबला कोई नहीं कर सकता. जब तक यह पानी बिना मिलावट के मिल रहा है पी लिया जाए.

हाँ तो में कहकर रहा था कि यह तरबूज वाला बरेली से आया है. मैंने पूछा कि इतनी दूर कैसे आए. उसने फिलासफी झाड़ दी. जनाब यह रोटी का मामला है. रोटी गोल होती है. इस गोल रोटी का जुगाड़ करने के चक्कर में आदमी सारी जिंदगी गोल-गोल घूमता रहता है. कुछ लोग अपने घर-गाँव में ही रोटी का जुगाड़ कर लेते हैं, और कुछ को दूसरी जगहों पड़ जाना पड़ता है. यह गोल रोटी नहीं मिली तो आदमी इस दुनिया से ही गोल जायेगा. बात में उसकी सच्चाई थी इस लिए मेने सर हिला दिया. बैसे आज कल चौकोर रोटी का काफ़ी चलन हो गया है. पर डबल रोटी को बीच में ला कर मेने उसकी गोल रोटी के महत्त्व को कम करना उचित नहीं समझा.

दिन में यह तरबूज वाले दूकान सजाते हैं.
रात में दूकान समेट कर वहीं सो जाते हैं. खाना भी वह फुटपाथ पर ही बनाते हैं. मचछरों से बचने के लिए मचछरदानी लगाते हैं , दिल्ली में कुछ दिनों से लगभग रोज रात में आंधी आ जाती है या बारिश हो जाती है. यह उस से किस तरह बचते हैं इस के लिए आप कुछ तस्वीरें देखें.
जून तक रहेंगे यह तरबूज वाले दिल्ली में. उसके बाद यह घर चले जायेंगे और मेरा सुबह का नारियल पानी बंद हो जायेगा.

Sunday 18 May, 2008

भारतीय धर्म-निरपेक्षता

आज के अखबार में एक लेख छपा है भारतीय धर्म-निरपेक्षता के ऊपर। लेखक हैं एम् जे अकबर. वह कहते हैं:

"...... there is not a single instance of any Hindu writer having vilified the Prophet of Islam. Similarly, there is, to my knowledge, not a single Muslim writer who was abusive towards Lord Ram or Hanuman. Indian secularism is quintessentially different from that of the west. It is not the separation of state and religion, but space for the other: coexistence on the basis of mutual respect. I do not have to believe in Hanuman to respect my Hindu brother's right to believe in Ramayana; the Hindu does not need to believe in Allah to respect my belief in the miracle of Holy Koran...."

कितनी सही और सच्ची बात कही है. कितना अच्छा होता अगर यह पूर्ण वास्तविकता होती। कुछ तथाकतित बौद्धिक लेखक और आर्टिस्ट हर हिंदू विचार को ग़लत साबित करने में लगे रहते हें। घटिया राजनीतिबाजों और मजहब के सौदागरों ने भारतीय धर्म-निरपेक्षता को नफरत और मार-काट में बदल दिया है. वोट की ओछी राजनीति लोगों को धर्म के नाम पर बाँट रही है. इस नफरत के साए में बाहर से आए कुछ आतंकवादी आसानी से यहाँ पनाह पा जाते हैं और स्थानीय मदद से आसानी से जयपुर जैसे नर-संहार को अंजाम दे देते हैं.

Saturday 17 May, 2008

पड़ोसी धर्म की मर्यादा

कहते हैं अच्छा पड़ोसी भाग्य से मिलता है. मैंने अपने जीवन में इसे चरितार्थ होते देखा है. पर सब कुछ भाग्य पर ही निर्भर नहीं करता. कुछ प्रयत्न अपनी और से भी करना पड़ता है. आप चाहते हैं कि आपके पड़ोसी अच्छे हों. ऐसा ही आपके पड़ोसी भी चाहते हैं. आप के पड़ोसी अच्छे हों इसके लिए यह जरूरी है कि आप ख़ुद एक अच्छे पड़ोसी बनें. हमारे पड़ोसी अच्छे हों और हम उनकी नाक में दम किए रहें, ऐसा सम्भव नहीं है. अपने आप से एक सवाल पूछिये - 'क्या आप अच्छे पड़ोसी हैं?'. देखिये क्या जबाब मिलता है? अगर जवाब 'नहीं' में मिलता है तब आपको कुछ करना चाहिए.

आज कल अधिकांश लोग अपार्टमेंट्स में रहते हैं जहाँ ज्यादातर फ्लेट्स एक दूसरे से सटे हुए होते हैं. इस तरह के फ्लेट्स में मिल जुल कर रहना आवश्यक है. साझा जगहों का सही इस्तेमाल जरूरी है. इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि आपके किसी काम से आपके पड़ोसियों को कोई असुविधा न हो. रेडियो, टी वी, म्यूजिक सिस्टम इस्तेमाल करते समय इस बात का ध्यान रखें कि आवाज ज्यादा न हो. ज्यादा आवाज पड़ोसियों को परेशान कर सकती है. यदि आप कुत्ते पालते हैं तब आपको ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है. आप जानवरों से प्रेम करते हैं यह अच्छी बात है. पर पालतू जानवरों से आप के पड़ोसियों को कोई परेशानी न हो इस का पूरा ख्याल रखें. पड़ोस के घरों में बच्चे और बुजुर्ग होते हैं. कुत्तों का बेवक्त भोंकना, इधर-उधर शिट कर देना आपके पड़ोसियों को परेशान करता है.

आप के घर के कचरे के डिस्पोजल की जिम्मेदारी आप की है. इस के लिए सरकार ने नियम भी बनाए हैं. इन नियमों का पालन कीजिये. कचरा जमादार को सोंपिये, जो उसे निगम द्वारा निर्धारित कचरा इकट्ठे करने की जगह पर ले जायेगा. इहर-उधर कचरा फैंक देना ग़लत है. अगर आप नीचे वाली पोस्ट देखें तो आपको पता चलेगा कि कुछ लोग इस मामले में कितने गैर-जिम्मेदार है. यदि आप ब्लाग में और नीचे जाएं तो आपको कुछ फोटो दिखाई देंगे. देखिये किस तरह लोगों ने खुले नाले को कचरा डाल कर कितना गन्दा कर दिया है. नाले से उठती दुर्गन्ध किसे परेशान करती है? नाले में पैदा हुए मच्छर किसे काटते हैं? पार्वा ने गेट पर प्लास्टिक शीट लगवा कर इस गंदगी को छुपाने की कोशिश की है, पर क्या इस से यह गंदगी दूर हो जायेगी? अगर गंदगी को दूर करना है तो हमें कचरा नाले में फैंकना बंद करना होगा.

मैंने अक्सर देखा है कि कुछ लोग दूसरों के दरवाजे पर लगे बल्ब चोरी कर लेते हैं. दूसरों की चिट्ठियां फाढ़ देते हैं. एक सज्जन ने बताया की उनके पम्प का तार किसी ने काट दिया. लोग अपने घरों में कुछ काम करवाते है पर मलवा हफ्तों बाहर पड़ा रहता है. हमें ऐसे ग़लत कामों से बचना चाहिए. अगर हम एक अच्छे पड़ोसी हैं तब हमारे पड़ोसी हम पर गर्व करेंगे. हमारी तारीफ़ करेंगे. पर अगर हमारे कारण उन्हें परेशानी होती है तब वह सब से हमारी शिकायत करेंगे. हम सब यही चाहते हैं कि लोग हमें एक अच्छे पड़ोसी के रूप में जाने. आइये एक अच्छा पड़ोसी बनें. इस में सब का फायदा है. आपातकाल में पड़ोसी ही काम आते हैं. आपके मित्र, नाते रिश्तेदार सब आ जायेंगे आप कि मदद करने पर उन्हें आने में देर लगेगी.कभी-कभी समय बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. आपके पड़ोसी आपकी तुरंत मदद करते हैं. तब आपको महसूस होता है कि एक अच्छा पड़ोसी कितना जरूरी है.

श्री राम को लोग मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं. आइये देखें कि उन्होंने पड़ोसी धर्म के लिए क्या मर्यादा तय की है. पिता के आदेश पर जब राम बन में गए तो उन्होंने महसूस किया की चौदह वर्षों तक उन्हें बन में रह रहे ऋषि, मुनि और अन्य प्राणियों के पड़ोस में रहना होगा. उन्होंने ऋषि वाल्मीकि से निवेदन किया कि वह उन्हें इस बारे में सलाह दें जिससे उनके कारण किसी ऋषि, मुनि या अन्य किसी प्राणी को कोई असुविधा न हो. राम कितने लंबे समय तक बन में रहे, पर उनके किसी व्यवहार से किसी को कोई असुविधा नहीं हुई. बल्कि उनके बन में रहने से बनवासियों को लाभ ही मिला. आइये श्री राम की यह मर्यादा अपने जीवन में उतार लें. एक अच्छे मर्यादित पड़ोसी होने का धर्म निभाएं.

Friday 16 May, 2008

सोनिया जी, क्यों जाते हैं आप लोग वहाँ?

सोनिया गाँधी और उनका ग्रह मंत्री पहुँच गए जयपुर. अरे भाई आप क्या करेंगे वहाँ? सिवाय लोगों को और परेशान करने के आप क्या कर पाएंगे वहाँ? अगर आपने कुछ किया होता तो यह सब कुछ हुआ ही न होता. हजारों नागरिक मर चुके हैं अब तक हुए ऐसे कातिलाना हमलों में. न तो आप इन हमलों को रोक पाये हैं और न ही कातिलों को सजा दे पाये हैं. अदालतों ने कुछ कातिलों को सजा दी भी तो आपने उन्हें सरकारी दामाद बना दिया. हर जगह राजनीति करने क्यों पहुँच जाते हैं आप लोग? क्या आप भारत के आम निर्दोष नागरिकों को चैन से नहीं रहने दे सकते? क्या बिगाड़ा है इन्होनें आपका? वोट देकर इन्होनें आपको सत्ता दे दी. आपने क्या दिया इन्हें? केवल आतंकवादियों के हाथ मौत.

आपके हिसाब से हर हिन्दुस्तानी मुसलमान आतंकवादी है. इसलिए आपको डर है कि अगर किसी आतंकवादी को सजा मिल गई तो हिन्दुस्तान के मुसलमान आपसे और आपकी पार्टी से नाराज हो जायेंगे और आपकी सत्ता छिन जायेगी. कितना ग़लत सोच है आपका? कितनी ग़लत नीतियाँ हैं आपकी? आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता. वह सिर्फ़ कातिल होता है. समाज के शरीर में आप जैसे राजनीतिबाजों के कर्मों से बना नासूर. जिसका का एक ही ईलाज है कि उसे काट कर फैंक दिया जाए. पर क्या आप ऐसा कर पाएंगे? नहीं, यह सोचना भी बेबकूफी होगी.

आपको आने वाले चुनाव जीतने हैं. इसलिए आपने लोगों के जख्मों पर ही राजनीति शुरू कर दी. जिन के प्रियजन मारे गए हैं उन्हें शान्ति से उनका दुःख मनाने दीजिये. जिन के प्रियजन घायल हुए हैं इन्हें उनकी तीमारदारी करने दीजिये. आप घड़ियाली आंसू बहाकर उन्हें और तकलीफ मत दीजिये. यह आप भी जानती है और सारे हिन्दुस्तानी भी जानते हैं कि आप के दिल में उनके लिए कोई प्यार नहीं है. आप के लिए तो वह सिर्फ़ एक वोट हैं. यह हमदर्दी का नाटक बंद कीजिये और उन्हें अपने गम से बाहर आने दीजिये.

Thursday 15 May, 2008

सिखायेंगे सबक हिन्दू इंडिया को!

कातिल एक बार फ़िर टूटे कहर बन कर निर्दोष इंसानों पर,
कहा हम सिखायेंगे सबक हिन्दू इंडिया को,
मुझे इंडिया में रहते ६० से ज्यादा साल हो गए,
पर मैं नहीं जानता किसी हिन्दू इंडिया को,
क्या आप जानते हैं?
मुझे यकीन है आप भी नहीं जानते,
आप क्या कोई नहीं जानता,
क्योंकि कोई हिंदू इंडिया है ही नहीं.

जिस इंडिया को सबक सिखाया इन कातिलों ने,
वह तो है इंडिया, हिन्दुओं का, मुसलमानों का,
सिख, इसाई, पारसी, जैन, बौद्धों का,
और क्या सबक सिखाया इन कातिलों ने?
ख़ुद कहाँ सीखा है उन्होंने वह सबक?
किसने सिखाया है उन्हें वह सबक?

अगर यह कातिल वाशिंदे हैं इंडिया के,
तब की है उन्होंने गद्दारी उस ज़मीन से,
जिसने दी उन्हें दो वक्त की रोटी,
उस हवा से, उस पानी से,
जिसने दी उन्हें जिंदगी.

अगर आए हैं वह पड़ोसी मुल्क से!
तो क्या जन्नत जीत ली उन्होंने?
क्या मिल गई उन्हें हूरें?
नहीं उन्हें कुछ नहीं मिला,
न जन्नत, न हूरें,
क़यामत के दिन होगा उनका हिसाब,
सीधा और सच्चा, खुदा का न्याय,
फैंक दिए जायेंगे सब जहन्नुम में,
क्योंकि यह कातिल हैं शैतान के बन्दे,
कर रहे हैं गुनाह खुदा के नाम पर,
मार कर खुदा के बंदों को.

खुदा न हिन्दू है, न मुसलमान,
खुदा तो मोहब्बत का सागर है,
सबके दिलों में बैठा है खुदा,
बाँट रहा है मोहब्बत,
मोहब्बत है ब्रांड खुदा का,
नफरत है ब्रांड शैतानियत का,
इंडिया ने चुना है मोहब्बत का ब्रांड,
यह कातिल क्या सिखायेंगे सबक इंडिया को,
नफरत की आग में ख़ुद जल जायेंगे.

Tuesday 13 May, 2008

दरबाजा दिखाओ इन मंत्रियों को - भाग २

एक और मंत्री हैं अर्जुन सिंह. पहले यह पढ़ लीजिये:

"I would like to put it on record that when I met Pandit Jawahar Lal Nehru in March 1960, I pledged my total loyalty to him and his family. This was the commitment which is an article of faith with me. For the past 48 years of my life, I have scrupulously adhered to it".

यह वह महान उदगार हैं जो इन सज्जन ने दुखी मन से प्रकट किए जब इस परिवार की मुखिया ने इन को एक तरफ़ कर दिया और इन के मंत्रालय में थोड़ा बहुत जो कुछ हुआ है उस का क्रेडिट भी मनमोहन सिंह को दे दिया. उस से पहले पार्टी के प्रवक्ता ने कहा था की हमारी पार्टी में चमचागिरी का कोई स्थान नहीं है. पर इस वीर और स्वाभिमानी पुरूष को देखिये, कि इतना अपमान होने पर भी अपनी बफादारी से बाज नहीं आ रहे हैं.

अफ़सोस की बात यह है कि एक परिवार के लिए समर्पित व्यक्ति को राष्ट्र की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है. किसी विकासशील देश में मानव संशाधन बहुत महत्वपूर्ण हैं. इसी संशाधन को विकसित करने का काम इन बफदार सज्जन को दिया गया. जो व्यक्ति ख़ुद अपने विकास के लिए चमचागिरी का सहारा ले वह देश के किसी संशाधन का क्या विकास करेगा?

एक बात और, किसी परिवार के लिए बफदार होने की कीमत देश क्यों दे? यह सज्जन जिस परिवार के बफादार थे या हैं, बही परिवार इन्हे उसका ईनाम दे. परिवार में ही कोई काम इन्हें दिया जाना चाहिए था. जनता के पैसे का इस तरह दुरूपयोग करना इस परिवार के लिए शोभनीय नहीं है. न ही इस परिवार को इस तरह का कोई अधिकार है. भाई आपका बफदार है आप भुगतिए, देश क्यों भुगते आपके बफादारों को?

इन मंत्री महोदय को बिना कोई समय नष्ट किए दरबाजा दिखाया जाना चाहिए.

Monday 12 May, 2008

हैवानियत भी शर्मा गई

पिछले सप्ताह मैंने एक टी वी चैनल पर एक दिल दहला देने वाला मंजर देखा था. सी आर पी ऍफ़ के आठ दस जवान कुछ बच्चों को बुरी तरह पीट रहे थे. वह बच्चों को गर्दन पकड़ कर घसीटते थे, डंडों से मारते थे और बीच बीच में अपने जूतों से उनके गुप्तांग पर प्रहार करते थे. यह घटना कश्मीर में श्री नगर की थी. यह बहादुर जवान आतंकवादिओं से एक मुट्भेढ़ के बाद वापस अपने केम्प मैं लौट रहे थे. रास्ते में इन्होने इन बच्चों को एक मैदान में क्रिकेट खेलते देखा. इनकी वीरता जाग उठी. और वह टूट पड़े इन मासूम बच्चों पर.

मैं हक्का-बक्का यह हैवानियत का नंगा नाच देख रहा था. मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ. पर यदि में उस समय घटनास्थल पर होता तो शायद हिंसक हो उठता और इन वहशी दरिंदों को उनके अत्याचार की सजा देता. टीवी चैनल पर एनौंसर चीख रहा था - वर्दी में गुंडे, यह इंसान हैं या हैवान, इस तरह बनाते हैं यह हैवान आतंकवादी, सजा दो इन को. उसने सी आर पी ऍफ़ के जन सम्पर्क अधिकारी से भी बात की. यह अधिकारी किसी तरह इस हैवानियत को सही ठहराने की कोशिश करता रहा.

मुझे आश्चर्य हुआ जब मैंने इस ख़बर को किसी अखबार में नहीं देखा. क्या किसी ने इसे देखा था?

दरबाजा दिखाओ इन मंत्रियों को

भारत के प्रथम मनोनीत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मंत्री परिषद् में ऐसे अनेक मंत्री हैं जिन्हें वहाँ नहीं होना चाहिए. कांग्रेस पार्टी ने सरकार बनाईं. परिवार के बफादारों को कुर्सी दी गई. जो चुनाव में हार गए थे उन्हें भी मंत्री बना दिया गया. समर्थक दलों ने जो समर्थन दिया उस की कीमत बसूल की उन्होंने. बाहर से एक सरकार पर अन्दर से कई सरकारें.

आइये बात करें स्वास्थ्य मंत्री अम्बुमानी रामादोस की. यह सज्जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ नहीं कर पाये. बस फिल्मों में धूम्रपान और शराब पीने के पीछे पड़े रहे. असली जिन्दगी में क्या हो रहा है उसके बारे में उन्हें कुछ पता नहीं. एक ग्लोबल रिपोर्ट कार्ड के अनुसार भारत में ५३ प्रतिशत से ऊपर बच्चों को प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध नहीं है. प्रति वर्ष दस लाख बच्चे एक वर्ष पूरा होने से पहले ही मर जाते हैं. पर यह सज्जन एम्स के निदेशक के पीछे लगे रहे. अपनी इस व्यक्तिगत दुश्मनी में, समर्थन का दबाब दाल कर इन्होनें सरकार को भी शामिल कर लिया. सरकार ने सदन में बहुमत का ग़लत इस्तेमाल करके एम्स के कानून में ऐसा संशोधन करवा दिया जिस से एम्स के निदेशक को तुरंत नौकरी से निकाला जा सके. इस संशोधन पर राष्ट्रपति के तुरंत हस्ताक्षर करवाए गए और एम्स के निदेशक को तुरंत दरबाजा दिखा दिया गया. न तो इस मंत्री ने और न ही सरकार, सदन, राष्ट्रपति ने इस बात की चिंता की की सुप्रीम कोर्ट ने एम्स के निदेशक की याचिका स्वीकार कर ली है और एक तारीख भी तय कर दी है मुकदमा सुनने के लिए. अब सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन को नाजायज करार दे दिया है. एम्स के निदेशक फ़िर अपने पद पर आ गए हैं. एक मंत्री की व्यक्तिगत दुश्मनी ने सरकार, सदन और राष्ट्रपति सबको शर्मिंदा किया है (मैं ऐसा मान रहा हूँ, पता नहीं इनमें से कोई शर्मिंदा हुआ भी है या नहीं).

क्यों नहीं ऐसे मंत्रियों को दरबाजा दिखाया जाता? क्या इन के बिना देश नहीं चल सकता? क्या किया है इन्होने देश और जनता के लिए? एक एम्स था उसे ख़त्म करने में सारी ताकत लगा दी. और जो नए एम्स खोले जाने थे उस प्लानिंग का तो पता नहीं क्या हुआ?

Monday 5 May, 2008

काम नहीं तो दाम नहीं

हम दाम के लिए काम करते हैं, तो दाम तभी मिलना चाहिए जब उस के लिए काम किया हो. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस
सिद्धांत को माना हैं. यह तार्किक द्रष्टि से भी सही है. पर इस सिद्धांत पर पूरी तरह और बिना किसी भेदभाव के अमल नहीं होता.

लोग हड़ताल कर देते हैं, न ख़ुद काम करते हैं और न दूसरों को करने देते हैं. कुछ राजनितिक दल इस ग़लत बात को न सिर्फ़ बढ़ाबा देते हैं बल्कि अदालतों को गाली देने से भी बाज नहीं आते. इन लोगों के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं होती. एम् पी और एम् एल ऐ जब मर्जी हो सदन की कार्यवाही भंग कर देते हैं. कितनी बार अखबारों में निकला है कि इन लोगों ने कितना काम किया है. पर इन लोगों के ख़िलाफ़ भी कोई कार्यवाही नहीं होती. छात्र हड़ताल करते हैं. अध्यापक हड़ताल करते हैं. डाक्टर हड़ताल करते हैं. सरकारी बाबू हड़ताल करते हैं. कभी तो कोई सरकार भी हड़ताल कर देती है. यह लोग काम नहीं करते पर दाम पूरे मांगते हैं. कभी कभी तो यह लोग दाम बढ़ाने के लिए भी हड़ताल करते हैं.

हड़ताल किसी समाज की प्रगति में सबसे बड़ा वाधक है. हड़ताल करने वालों को राष्ट्र द्रोह के अंतर्गत सजा दी जानी चाहिए. हड़ताल को अपनी बात कहने और मनवाने को एक सम्बैधानिक अधिकार करार देना एक नकारात्मक सोच है. इस सोच को बदला जाना चाहिए. हड़ताल पर पूर्ण पाबंदी लगनी चाहिए.

बिना बहस के मुद्दे मुर्दा हैं

में लिखता हूँ क्योंकि मुझे लिखना अच्छा लगता है,
पहले भी लिखता था पर छपता नहीं था,
मन के अन्दर अक्सर उमड़ गुमड़ होता है,
बाहर कागज़ पर छप जाए तो मन शांत हो जाता है,
अगर रद्दी में नहीं बिकी हैं तो अभी भी मिल जाएँगी,
मेरी अनछपी रचनाएं,
पर शायद अब मैं उन्हें पहचान भी न पाऊँ,
बहुत कुछ बदल गया है इस बीच,
मन बदल गया है, मोहल्ला बदल गया है,
सोच ही नहीं सोच का तरीका भी बदल गया है।

इंटरनेट ने छपने की मुश्किल आसन कर दी है,
लिखो और ख़ुद ही छप जाओ,
संपादक से 'खेद सहित वापस' का कोई डर नहीं,
पर एक नई मुश्किल हो गई है,
पहले छपने वाले कम थे और पढ़ने वाले बहुत,
अब पढ़ने वाले कम हैं और छपने वाले बहुत अधिक,
में पढ़ता हूँ, सोचता हूँ, टिपण्णी करता हूँ,
पर टिपण्णी अनुत्तरित रह जाती है,
लिखने वाला बस लिखता ही रहता है,
उसके लेखन ने क्या असर किया दूसरों पर?
शायद पलट कर देखने की जरूरत नहीं उसे.

मुद्दे तो है पर बहस कहाँ है?
बिना बहस के मुद्दे मुर्दा हैं.
हिन्दी ब्लाग जगत कब्रिस्तान बन गया है मुर्दा मुद्दों का,
इन मुर्दा मुद्दों को जीवित करना होगा,
मुद्दों को उनके तार्किक निष्कर्ष तक ले जाना होगा,
लिखने के साथ साथ पढ़ना भी होगा,
मुद्दे पर टिपण्णी, फ़िर टिपण्णी पर टिपण्णी, ........
यह क्रम बने ब्लागिंग का,
हिन्दी ब्लाग जगत का आंकलन हो,
नंबर से नहीं, मुद्दों की सार्थकता से,
आइये, आप आमंत्रित हैं, इस हवन में।
ion to debate

Saturday 3 May, 2008

पागल कौन है?

आज एक फ़िल्म देखी, "Crazy 4". चार पागलों की कहानी है. देख कर मन में एक सवाल उठा, वास्तव में पागल कौन है, वह जो पागलखाने के अन्दर हैं या वह जो पागलखाने के बाहर हैं? अगर आप यह फ़िल्म देखेंगे तब आप भी इसी सवाल से रूबरू होंगे. कहानी के अंत में एक पागल कहता है अपने डाक्टर से, 'हमें वापस पागलखाने ले चलिए, हम इस समाज के लायक नहीं है'. डाक्टर कहती है, 'नहीं, यह समाज तुम्हारे लायक नहीं है. यहाँ हर आदमी अपने लिए जीता है और दूसरों को मारता है'. कितनी सही बात है यह.

फ़िल्म की बात करें तो यह एक अच्छी फ़िल्म है. और भी अच्छी हो जाती अगर राखी सावंत और शाहरुख़ के आईटम नंबर फ़िल्म से निकाल दिए जाते. उनका कहानी से कुछ लेना देना नहीं. राखी ने एक भद्दा नाच प्रस्तुत किया. बच्चों के साथ फ़िल्म देख रहे थे. वह कुछ मिनट बहुत शर्मिंदगी में बीते.

कहानी की प्रश्ठभूमि में राजनीतिबाजों की छत्र छाया में पलता आतंक है. एक राजनीतिबाज अपनी निजी स्वार्थसिद्धि के लिए अपनी पत्नी का अपहरण करवाता है. पर उस के रास्ते में यह चार पागल आ जाते हैं. घटनाक्रम ऐसे चलता है कि राजनीतिबाज और उसे मदद करने वाला एक भ्रष्ट पुलिस अफसर गिरफ्तार हो जाते हैं. छोटी सी कहानी है पर उसमें पागलखाने से बाहर रहने वाले नंगे हो जाते हैं.

सीता की अग्नि परीक्षा

'नारी' ब्लाग पर विमला तिवारी 'विभोर' की एक कविता पढ़ी, "सीता तुम कृपाण पकड़ो अब". मैं विमला जी के विचारों का सम्मान करता हूँ. पर मैं सीता की अग्नि परीक्षा और बनवास को एक अन्याय के रूप में नहीं देखता. सीता कोई साधारण नारी नहीं थीं. वह एक सम्राट की पत्नी थीं. और वह भी एक ऐसे सम्राट की जो मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते थे. कोई भी पुरूष, चाहे वह अवतार ही क्यों न हो, अपने आप में पूर्ण नहीं होता. नारी (पत्नी) ही उसे पूर्ण बनाती है. राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया सीता ने. उनके साथ अन्याय हुआ ऐसा कह कर उन्हें छोटा मत बनाइये.

सीता की अग्नि परीक्षा को रामावतार के सन्दर्भ में देखना चाहिए. रामावतार एक निश्चित उद्देश्य को लेकर हुआ था. उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए सीता ने अग्नि परीक्षा दी. एक आदर्श राज्य की कल्पना को साकार रूप देने के लिए सीता ने बन गमन किया. रामायण में कई राज्य व्यवस्थाओं के बारे में बताया गया है. दशरथ का राज्य, जनक का राज्य, रावण का राज्य, बाली और फ़िर सुग्रीव का राज्य, भारत का राम के नाम पर राज्य, राम का राज्य. राजतन्त्र में प्रजा के एक व्यक्ति की बात को इतना सम्मान देना केवल राम राज्य में ही सम्भव था. और राम ऐसा बिना सीता के सहयोग के नहीं कर सकते थे. आज के दूषित प्रजातंत्र को अपने दिमाग से बाहर फैंक कर अगर हम राम की अयोध्या चलें तब हम समझ पाएंगे सीता की अग्न परीक्षा और बनवास को.

अढ़तीस साल पहले का वह प्यार भरा दिन

समय कितनी जल्दी गुजर जाता है. प्यार में तो और भी जल्दी गुजर जाता है. लगता है कल ही की तो बात है. विवाह के पवित्र बन्धन में बंधे थे हम. अपने आप में नारी और पुरूष दोनों अपूर्ण होते हैं. विवाह के माध्यम से दोनों मिलते हैं और एक पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण होता है. जितना प्यार उतनी पूर्णता. मिलन जितना पगता गया प्यार उतना ही प्रगाढ़ होता गया. जीवन के अभाव मिल कर झेले और सुविधाओं का मिल कर उपभोग किया. कोई शिकायत नहीं बस प्यार ही प्यार. नौकरी में थे इस लिए संयुक्त परिवार से अलग रहे पर जड़ें वहीं जमी रही. आज बच्चों के साथ मिल कर हवन किया और ईश्वर से प्रार्थना की कि जो कृपा हम पर अब तक बनी रही है, आगे भी बनी रहे. इतने वर्षों बाद आज मन हो आया कुछ लिखने का.

नारी और पुरूष का पहला कर्तव्य है स्रष्टि चक्र को आगे बढ़ाना. ईश्वर की कृपा से हम ने यह कर्तव्य पूरा किया. दो पुत्र दिए हम ने समाज को. पुत्री की कमी हमेशा महसूस हुई. दोनों पुत्रों के विवाह से वह कमी भी पूरी हो गई. दो पुत्रियां आ गई घर में. फ़िर आईं दो पोतियाँ. मन और घर का हर कोना भर गया. हमारा अपना संयुक्त परिवार है. परस्पर प्यार, सम्मान और मिल जुल कर रहने की भावना यही हमारा धन है. समाज को जो दे सकते थे दिया, और जो दे सकते हैं देते रहेंगे.

आज समाज में जो नफरत और हिंसा फ़ैल रही है उस से मन दुखता है. संयुक्त परिवारों को टूटते देख मन में कसक होती है. इंसान का जरा सी बात पर हिंसक हो उठना और दूसरों के जान-माल की हानि कर देना, अक्सर मन में डर पैदा करता है. मंदिरों में भीढ़ बढ़ रही है पर इंसान ईश्वर से दूर जा रहा है. हमारी पीढ़ी ने बहुत कुछ बहुत तेजी से बदलते देखा है. आज हवन के बाद की प्रार्थना की कुछ पंक्तियाँ हिम्मत बंधा गईं.

स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो,

भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की,

वायु जल सर्वत्र हों शुभ गंध को धारण किए.

Friday 2 May, 2008

बावनखेड़ी नरसंहार

उत्तर प्रदेश में जे पी नगर जिला मुख्यालय से १८ किलोमीटर दूर बसा एक छोटा सा गांव है बावनखेड़ी. अमरोहा से हसनपुर मार्ग वाली सड़क पर 8 किलोमीटर की दूरी पर बसा है यह गाँव. इस गाँव में रहते थे शौकत. आठ सदस्यों के उनके परिवार में थी उन की बेटी शबनम. बहुत प्यार करते थे वह अपनी एकलौती बेटी से. अंग्रेजी में एम् ऐ कराया था उसे. एक रात इस बेटी ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने परिवार के सब सदस्यों की गर्दनें काट डाली. पिता से शुरू किया उस ने. बाल पकड़ कर वह गर्दन उठाती और उस का प्रेमी कुल्हाडी से गर्दन काट देता. छोटे भतीजे को उस के प्रेमी ने गला दबाकर मारा. प्रेमी के जाने के बाद बच्चा रोने लगा. शायद गला पूरी तरह दबा नहीं. वहशी बनी शबनम ने ख़ुद ही उस का गला तब तक दबा कर रखा जब तक तड़प तड़प कर वह शांत नहीं हो गया.

एक शिक्षित, शांतिप्रिय और पैसे वाले परिवार की इस बेटी का एक युवक से प्रेम हो गया. न जाने दोनों के बीच क्या तय हुआ कि बेटी वहशी बन गई. प्लान बनाया और जिस दिन घर के सब सदस्य घर पर थे प्लान को अंजाम दे दिया. भरा पूरा, हँसता खेलता घर कब्रिअतान बन गया. एक बेटी ने मारा और दफ़न कर दिया - शौकत, उनकी बीबी हाश्मी, दो जवान बेटे राशिद और अनीस, अंजुम, राबिया तथा मासूम अर्श.

यह कैसा प्यार है? यह प्यार है या वहशीपन? जो बाप 'बाबा' की आवाज सुनते ही दौड़ा चला आता था, उसी के बाल पकड़ कर गर्दन ऊपर उठाना और अपने प्रेमी से कहना 'चल काट गर्दन'. जिस माँ ने ९ महीने अपने पेट के अन्दर रखा उसकी गर्दन काट देना. भगवान् ऐसी बेटी किसी को न दे. गाँव वाले उसे डायन, जहरीली नागिन, बेटी के नाम पर कलंक पुकार रहे हैं. मैं पिछले दिनों अपने गाँव गया था तब इस घटना का पता चला. अन्दर तक दहल गया मैं.

टिप्पणी मॉडरेशन सक्षम क्यों कर देते हैं कुछ चिठ्ठाकार?

कुछ चिठ्ठाकार टिप्पणी मॉडरेशन को सक्षम कर देते हैं. पता नहीं ऐसा वह क्यों करते हैं? लोग चिठ्ठा पढ़ते हैं, उस पर अपनी टिपण्णी करते हैं. पर उसे चिठ्ठे पर देख नहीं पाते.

एक चिठ्ठे पर तो मैंने यह देखा कि केवल चिठ्ठे के सदस्य ही टिपण्णी कर सकते हैं. मैंने ऐसा एक चिठ्ठा पढ़ा, मुझे अच्छा लगा. मन में कुछ विचार उठे. टिपण्णी लिखी. पर जब उसे सब्मिट करने गया तो कर नहीं पाया. अच्छा नहीं लगा यह. पर क्या कर सकते हैं. जिन्होनें चिठ्ठा लिखा है उनका अधिकार है यह.

अरे करने दीजिये न लोगों को टिप्पणी दिल खोल कर.