दैनिक प्रार्थना

हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो


दैनिक प्रार्थना

है आद्य्शक्ति, जगत्जन्नी, कल्याणकारिणी, विघ्न्हारिणी माँ,
सब पर कृपा करो, दया करो, कुशल-मंगल करो,
सब सुखी हों, स्वस्थ हों, सानंद हों, दीर्घायु हों,
सबके मन में संतोष हो, परोपकार की भावना हो,
आपके चरणों में सब की भक्ति बनी रहे,
सबके मन में एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव हो,
सहानुभूति की भावना हो, आदर की भावना हो,
मिल-जुल कर शान्ति पूर्वक एक साथ रहने की भावना हो,
माँ सबके मन में निवास करो.

Saturday 27 September, 2008

यह किस भारत की बात कर रहे हैं मनमोहन जी?

मनमोहन सिंह जी ने बुश को गले लगाकर कहा, 'भारत के लोग आपको गहरा प्यार करते हैं'. पर न जाने क्यों बुश ने जवाब में यह नहीं कहा, 'मैं भी उन्हें गहरा प्यार करता हूँ'. आम तौर पर यही कहा जाता है. पर यह आम तौर वाली बात नहीं हुई. इस का क्या कारण हो सकता है? मेरे विचार में या तो उन्हें मनमोहन जी की बात पर पूरा यकीन नहीं था, या वह भारत के लोगों को मनमोहन जी से ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं.

दूसरी बात मुझे ज्यादा सच लगती है. बुश को पता है कि भारत के अधिकाँश लोग उन्हें पसंद ही नहीं करते,प्यार क्या करेंगे, और गहरा प्यार. यह तो हद ही कर दी मनमोहन जी ने. हाँ एक बड़ा वर्ग उन्हें नफरत तक करता है. इसमे भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे मनमोहन जी और उनकी सरकार वोट बेंक मान कर चलते हैं. समझ में नहीं आता मनमोहन जी किस भारत का और भारत की किस जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं? हम ने जिस मित्र से यह सवाल पूछा था कहने लगे. 'यार तुम भी कमाल करते हो. मनमोहन जी को न तो भारत ने चुना और न भारत के लोगों ने. उन्हें जिन्होंने मनोनीत किया वह खुश हैं कि उनका सही प्रतिनिधित्व हो रहा है'.

मित्र की बात में हमें दम नजर आया. बैसे भी शायद मनमोहन जी का भारत वह नहीं है जिसे हम आम आदमी जानते हैं. कुछ दिन पहले मनमोहन जी ने कहा था, 'दिल्ली भारत का सबसे सुंदर, हरा भरा और साफ़-सुथरा शहर है'. वह उस दिल्ली में रहते हैं जिसे आम आदमी नहीं जानता. आम आदमी की दिल्ली न तो सुंदर है, न हरी-भरी और न ही साफ़-सुथरी. ऐसे ही शायद मनमोहन जी का भारत भी आम आदमी के भारत से अलग कोई चीज है. लगता है इसी भारत के लोगों की तरफ़ से उन्होंने बुश को प्यार कहा था.

धन्य हैं मनमोहन जी और धन्य है उनका भारत और धन्य हैं उनके भारत के लोग.

बुश जानते हैं कि आम आदमी का भारत उन्हें प्यार नहीं करता.

Friday 26 September, 2008

वह चुप न रह सके, तो मैं भी चुप न रह सका

अपने ब्लाग 'वो जो चुप न रह सका' पर ब्लाग के सूत्रधार विश्व ने एक लेख लिखा है - 'आप सड़ें चाहे गलें, लेकिन हमारा साथ छोड़ा तो मिटा देंगे'. इन की प्रोफाइल बस इतना बताती है कि यह दिल्ली से हैं. यह हिन्दुओं और हिंदू धर्म से बहुत नाराज हैं. बहुत कुछ लिखा है इन्होनें. कुछ बातों पर मैंने अपनी राय दी है. वह राय मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.

"हिंदू धर्म को किसी रक्षक की जरूरत नहीं है. यह तो सनातन धर्म है. इसका न आदि है न अंत. यह तो तब भी था जब ईसाई धर्म नहीं था, इस्लाम नहीं था, और बहुत से धर्म नहीं थे. ईसाइयों ने कितने समय तक इस देश पर राज्य किया, पर सारे हिन्दुओं का धर्म नहीं बदल पाये. मुसलमानों ने भी लंबे समय तक इस देश पर राज्य किया, पर सारे हिन्दुओं का धर्म नहीं बदल पाये.

किसी भी व्यक्ति को कोई भी धर्म छोड़ कर दूसरा धर्म अपनाने से नहीं रोका जा सकता, पर उसे धमका कर या प्रलोभन देकर इस के लिए तैयार करना ग़लत है. अगर किसी को सहायता चाहिए तो क्या उसे यह कहना चाहिए कि हम तुम्हारी सहायता करेंगे, पर उस के लिए तुम्हें अपना धर्म बदलना होगा और हमारा धर्म अपनाना होगा. हमारा धर्म तुम्हारे धर्म से अच्छा है, हमारा ईश्वर तुम्हारे ईश्वर से अच्छा है, इस विचारधारा का आप समर्थन करते हैं. मेरे विचार में यह एक प्रकार का आतंकवाद है. इस का समर्थन नहीं, इस का विरोध किया जाना चाहिए.

किसी धामिक स्थान पर हमला करना ग़लत है. चर्चों पर हो रहे हमले ग़लत हैं. पर सिर्फ़ इसी की निंदा करना भी ग़लत है. ईसाई जो कर रहे हैं उस की भी निंदा की जानी चाहिए. आपका यह पक्षपात रवैया भी निंदा के योग्य है. यह बात भी मत भूलिए कि जब इस देश पर ईसाई और मुसलमान राज्य कर रहे थे तब कितने ही मन्दिर लूटे गए, ध्वस्त कर दिए गए. यह आज भी हो रहा है. हर हिंदू का मन एक मन्दिर है, उस से उस हिन्दू के भगवान् की मूर्ती हटा कर अपने ईश्वर की मूर्ती स्थापित करना, मन्दिर पर हमला है. इस की निंदा कीजिए. जिन ईसाइयों की बात आप कर रहे हैं उन से कहिये कि इस देश में उन्हें अपने धर्म के अनुसार आचरण करने की पूरी आजादी है, पर यह आजादी हिंदू धर्म में अतिक्रमण करने के लिए नहीं है. हिंदू शांतिप्रिय हैं, इस का मतलब यह नहीं है कि वह सब कुछ बर्दाश्त कर लेंगे. कारण की निंदा कीजिए. केवल परिणाम की निंदा करने से समस्या हल नहीं होगी. ईसाई इस देश का हिस्सा हैं. मिलजुल कर रहें. हिंदू धर्म में अतिक्रमण करना बंद कर दें."

जनता के पैसे से जनता के कातिलों को कानूनी मदद दी जायेगी

इस देश में कुछ भी हो सकता है। इस देश में जनता के कातिलों की खुल्लमखुल्ला हिमायत की जा सकती है। अगर पुलिस बम धमाकों के बाद कुछ लोगों को गिताफ्तार करती है तो इस देश में जनता के पैसे से उन को कानूनी मदद दी जा सकती है। एक वाइस चांसलर अपराधियों की हिमायत करता है, सरकार उस का समर्थन करती है। कोई यह नहीं सोचता कि इस से आतंकवादियों को बढ़ाबा मिलेगा। आतंकवादी पहले ही इस सरकार की उनके प्रति नरम नीति से उत्साहित हें। इस के बाद तो वह और उत्साहित हो जायेंगे। चलो बम धमाके करें, बैसे तो पकड़े नहीं जायेंगे और अगर पकड़े गए तो इस मुल्क के कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवी और सरकार हमारी तरफ़ से मुकदमा लड़ेगी । वाह री सरकार, और वाह तेरी आतंकवाद से लड़ने की नीति। पहले पुलिस को बोल, मारो या पकड़ो, फ़िर जो पकड़े जाएँ उन्हें बोल घबराओ मत हम तुम्हें बचायेंगे। हम ने अफज़ल को बचाया है, तुम्हें भी बचायेंगे। बस अपने वोट हमें देते रहना।

मैं तो यह मानता हूँ कि बम फटे और लोग मरे। ऐसा इस देश के और भी बहुत से लोग मानते हें। अब यह सब किस ने किया यह पता लगाना इस देश की पुलिस की जिम्मेदारी है। पुलिस जो सुराग मिल रहे हैं उन के अनुसार ही काम करेगी. इन सुरागों के आधार पर अगर पुलिस किसी मुसलमान से पूछताछ करेगी या किसी को गिरफ्तार करेगी तो वाइस चांसलर साहब चिल्लाना शुरू कर देंगे। अब क्या करे पुलिस? क्या जो मरे हैं उनके घर वालों को गिरफ्तार कर ले? अगर ऐसा ही चाहते हैं इस देश के मुसलमान बुद्धिजीवी तो उन्हें सरकार पर वोट का दबाब डाल कर एक कानून बनबा देना चाहिए, जिसमें यह घोषित किया जाय कि किसी मुसलमान से किसी भी अपराध के लिए न तो पूछताछ की जायेगी और न ही उसे गिरफ्तार किया जायेगा. मेरे मुस्लिम भाइयों यकीन कीजिए आपके वोटों के लिए छटपटाती यह सरकार यह कानून बनाने के लिए वायदा भी कर लेगी. क्यों न यह सरकार एक आतंकवादी सुरक्षा कमीशन भी बना दे और इन वाइस चांसलर साहब को उसका चेयरमेन बना दे? आतंकवादी और उनके समर्थक ही तो इस देश के असली नागरिक हैं. बाकी सब तो कीड़े मकोड़े हैं जिन्हें जब चाहा बम से उड़ा दिया.

जो हाथ बम बनाता है, जो हाथ उसे प्लांट करता है, जो हाथ उसका विस्फोट करता है, जो हाथ यह करने वालों की पीठ थपथपाता है, जो हाथ उनके समर्थन में उठ कर नारे लगता है, यह सारे हाथ आतंकवादियों के हाथ हैं. इस देश के नागरिकों को अब यह तय करना है कि इन हाथों को काट दिया जाय या इन हाथों से अपने हाथ मिला लिए जाएँ. फ़ैसला आपका है और आपको ही करना है.

Thursday 25 September, 2008

फ़िर आएगा जीत का मौसम

खोज रहा हूँ,
आस-पास और दूर-दूर तक,
साए खोये हमसायों के.
हर लम्हा जो रहे साथ में,
धीरे-धीरे दूर हो गए,
फ़िर बजूद बदले सायों में,
फ़िर साए भी कहीं खो गए.

मैं चला था कर्म पथ पर,
दृढ निश्चय पर अकेला,
आ जुड़े हर जीत के संग,
मित्र इतने जैसे मेला.
जीत-जीत सब रहे साथ में,
हार आई तो खफा हो गए,
छोड़ अकेला चक्रव्यूह में,
सारे पांडव हवा हो गए,
पांडव मिल बैठे कुरुओं से,
अभिमन्यु रह गया अकेला,
कुरुछेत्र के रण-प्रांगण में,
लगता नौटंकी का मेला,
कुरुओं के संग मिलकर पांडव,
अभिमन्यु पर तीर चलाते,
मार गिराने उसे युद्ध में,
नए-नए षड़यंत्र रचाते,
देख रहा इतिहास दूर से,
क्या वह ख़ुद को दोहराएगा?
यदि कहावत यह सच्ची है,
अभिमन्यु मारा जायेगा,
धर्म, सत्य, न्याय जीतेंगे,
कहती है कान्हा की गीता,
कौन उसे झुटला पायेगा?
बस समझो अभिमन्यु जीता.

इसी लिए लड़ता हूँ अब भी,
चाहे हूँ में एक अकेला,
फ़िर आएगा जीत का मौसम,
मित्र जुड़ेंगे जैसे मेला.

Tuesday 23 September, 2008

एक ख़त आतंकियों के नाम

मेरे प्यारे आतंकियों,

मैं हिन्दुस्तान का एक आम नागरिक हूँ, पर आपका एक बहुत बड़ा पंखा हूँ. मेरा मन हर समय आपकी तारीफ़ करने को करता है. शैतान में ईमान रखने वाले आप आतंकवादियों ने खूब जमके बेबकूफ बना रखा है खुदा में ईमान रखने वालों को. वह यह समझते हैं कि आप उनके लिए जिहाद कर रहे हैं, जब कि आप तो उनका ही जिहाद कर रहे हैं. एहमदाबाद, बंगलौर, हेदराबाद, जयपुर, दिल्ली,जहाँ भी आपने बम धमाके किए, खुदा के बन्दे भी उस में मारे गए. दरअसल आपने बम विस्फोट करने की अपनी तकनीक में काफ़ी सुधार किया है, पर आप असली सुधार करना भूल गए. जरा बम को भी कह देते कि वह फटने से पहले यह पता करले कि आप पास कोई खुदा का बंदा तो नहीं है. पर आप यह नहीं चाहते न. आप को तो बस दहशत फैलानी है. निर्दोष नागरिकों को मारना है, चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख या ईसाई हो. आप तो शैतान की हकूमत कायम करना चाहते हैं और इस के लिए खुदा के बन्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं और वह बहुत खुशी के साथ इस्तेमाल हो रहे हैं. आपकी इसी सफलता ने तो मुझे आपका पंखा बना दिया है.

बाहर से आप नेताओं, उन की सरकार और उन की पुलिस को गालियाँ देते हैं, जबकि अन्दर से आप और वह एक है. आप के मकसद अलग हो सकते हैं पर नतीजा एक है - निर्दोष आम आदमियों की मौत. आप भी नफरत का कारोबार करते हैं और वह भी. फर्क सिर्फ़ इतना है कि आप शैतान की हकूमत कायम करना चाहते हैं और वह अपनी हकूमत बनाये रखना चाहते हैं. आपने आज तक इतने धमाके किए पर क्या कभी कोई नेता मरा आपके हाथों? आप इन से दुश्मनी दिखाते हैं पर आम आदमी से दुश्मनी निभाते हैं. यही आपकी सब से बड़ी दूसरी सफलता है. इस के लिए भी आपको मेरी वधाई.

अब मैं आपको एक सलाह देना चाहूँगा. आप क्यों अपने हाथ आम आदमी के खून से रंगते हैं? अरे भाई अक्सर ब्लू लाइन आम आदमी को कुचल देती है. कोई न कोई आम आदमी अक्सर बीआरटी कारडोर में अपनी जान गवां देता है. कभी कोई बीएम्अब्लू किसी आम आदमी को कुचल कर निकल जाती है. कभी पुलिस किसी आम आदमी का एनकाउन्टर कर देती है. कभी उसे थाने में पीट कर मार डालती है. कभी कोई पति अपनी प्रेमिका के साथ मिलकर अपनी पत्नी की हत्या कर देता है. कभी कोई जागरूक पत्नी अपने प्रेमी के साथ मिल कर अपने पति की हत्या कर देती है. कभी कोई मर्द अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए किसी बच्ची पर बलात्कार करके उसे मार डालता है. आज कल तो बच्चे भी कत्ल करने लगे हैं. आज कल बाढ़ आम आदमी का संहार कर रही है. मतलब मेरा यह है कि रोज ही कितने आम आदमी मर जाते हैं या मार डाले जाते हैं. अगर आप रोज एक ऐ-मेल भेज कर इन मौतों का क्रेडिट ख़ुद ले लिया करें तो आपके हाथ खून से रंगने से बच जायेंगे, और आम आदमियों को मारने का आपका मकसद भी पूरा हो जायेगा. शैतान की हकूमत लाने को तो तो इस देश की सरकार, नेता और खास आदमी ही रात-दिन एक कर रहे हैं. अब तो धीरे-धीरे आम आदमी भी उन की मुहीम में शामिल होता जा रहा है. आप क्यों परेशान होते हैं?

आपके फेवर में एक बात और है. शैतान तो एक है पर खुदा बहुत सारे हो गए हैं. हिन्दुओं का भगवान, मुसलमानों का अल्लाह, ईसाइयों का खुदा और न जाने कितने. यह ख़ुद ही आपस में लड़ मर रहे हैं. कुछ लोग अपने खुदा के लिए रिक्रूटमेंट करने में भी लगे हैं. दूसरों का धर्म बदलने के लिए रात-दिन एक कर रहे हैं. कुछ लोग इस धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ रात-दिन एक कर रहे हैं. कितनी जानें इसी में चली जाती हैं. आपके शैतान को तो मुफ्त में वालंटीयर मिल रहे हैं. आप आराम से अपने घर बैठो, इन्टरनेट पर मजे करो. आपका काम तो यह लोग ही कर देंगे.

Sunday 21 September, 2008

थोड़ा जोश आया था पर ..............

दिल्ली ब्लास्ट के बाद जब जनता बहुत भड़क उठी, और लगा भाजपा वाले फायदा उठा रहे हैं, तो कांग्रेस सरकार को थोड़ा जोश आने का नाटक करना पड़ा. पर वह नाटकीय जोश तुंरत ही ठंडा भी हो गया. दिल्ली पुलिस ने कुछ आतंकवादियों को मार दिया, कुछ को पकड़ लिया, सरकार ने क्रेडिट की माला अपने गले में डाल ली. शर्मा जी बेचारे शहीद हो गए. कांग्रेसी बिना शहीद हुए महान हो गए. कुछ दिन तक चिल्लाये कि पोटा जैसा कानून बनेगा, पर अब इस की जरूरत नहीं रही. अब चिल्ला रहे हैं कि देखा हमने आतंकवाद का सफाया कर दिया. पाटिल जी ने नए सूट का आर्डर कर दिया. मनु सिघवी जीवन में इतना खुश कभी नहीं दिखे. शर्मा जी ने मर कर पाटिल और कांग्रेस को जिदगी दे दी.

मैं सोचता हूँ कि अगर शर्मा जी शहीद न हुए होते तो दिल्ली पुलिस के इस एनकाउन्टर की तो बखिया ही उधेड़ दी थी लोकल मुस्लिम निवासियों, उन के नेताओं और मीडिया ने. अब समय बतायेगा कि यह स्वभाव से एहसानफरामोश नेता शर्मा जी के परिवार से कितनी सहानुभूति रखते हैं. पार्लियामेन्ट हमले में इन नेताओं को बचाने के लिए जिन्होनें अपनी जान दे दी थी, उनके परिवार वालों का तो जम कर अपमान किया इन एहसानफरामोश नेताओं ने.

एक सिक्के के दो पहलू हैं यह आतंकवादी और यह नेता. मकसद दोनों का एक है, आम आदमी में परस्पर नफरत पैदा करो. उन्हें आपस में लड़ाओ. अपना स्वार्थ सिद्ध करो. वह मारते हैं, यह मारने देते हैं. क्या आपको लगता है कि कभी कोई नेता आतंकवादियों के हाथों मरेगा? मुझे तो ऐसा नहीं लगता.

Saturday 20 September, 2008

पुलिस पर नहीं आतंकवादिओं पर शक करो

कुछ स्थानीय मुसलमान अभी भी इन आतंकवादियों के छलाबे में आ रहे हैं. एक मकान में कुछ लोग आ कर रहते हैं पर मकान मालिक पुलिस से सत्यापन नहीं कराते. मोहल्ले के लोग उन के बारे में पुलिस को सूचित नहीं करते. क्या यह लोग नहीं जानते कि इस तरह के लोगों के बारे में कानूनन उन्हें पुलिस को सूचना देनी है? जैसे ही पुलिस किसी मुस्लिम बहुल इलाके में कोई कार्यवाही करती है यह लोग चिल्लाने लगते हैं और मीडिया इस आग में घी डालता है. क्या इन मुस्लिम बहुल इलाकों पर देश का कानून लागू नहीं होता? क्या पुलिस को इन इलाकों में घुसने से पहले इन लोगों की इजाजत लेनी होगी? और जब कि कुछ ही दिन पहले शहर में बम धमाकों में कितने निर्दोष नागरिकों की जान गई है. इस देश के मुसलमानों को इन आतंकवादियों से ख़ुद को बचाना चाहिए. यह आतंकवादी मुसलमान नहीं हैं, यह इस्लाम के दुश्मन हैं. यह अल्लाह के बन्दे नहीं हैं. यह शैतान के बन्दे हैं. एक सच्चे मुसलमान को इनसे कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहिए. एक सच्चे मुसलमान को खुल कर आतंकवादियों की निंदा करनी चाहिए, उन का विरोध करना चाहिए.

इस देश के नागरिक और पुलिस मुसलमानों के दुश्मन नहीं हें। इस्लाम के नाम पर हत्याएं करने वाले यह आतंकवादी मुसलमानों के दुश्मन हें। भारतीय मुसलमानों को इस मसले पर पुलिस पर शक की ऊँगली नहीं उठानी चाहिए। दिल्ली में जिन्होनें बम धमाके किए उनकी निंदा करो। इंसपेक्टर शर्मा की शहादत पर सहानुभूति के दो शब्द कहो। इस से इन आतंकवादियों का मनोबल टूटेगा। हिन्दुओ और मुसलमानों के बीच भरोसा मजबूत होगा। यह समय की मांग है। यह मुल्क हिंदू और मुसलमान दोनों का है। दोनों को यहाँ रहना है। आतंकवादियों का न कोई मजहब है और न कोई मुल्क। यह तो कत्ल करेंगे और भाग जायेंगे। हम सब को तो यहीं रहना है।

Friday 19 September, 2008

प्रधानमंत्री मनोनीत सिंह का राष्ट्र के नाम संदेश

मेरे प्यारे मैडम के देशवासिओं,

पिछले दिनों देश की राजधानी में बम धमाके हो गए और कुछ लोग स्वर्गवासी हो गए. इससे पहले कुछ प्रदेशों की राजधानियों में भी बम धमाके हुए थे. पर उस समय आप ने इतना शोर नहीं मचाया जितना अब मचा रहे हैं. क्या यह इसलिए कि मैडम और मैं देश की राजधानी में रहते हैं? मुझे कहा जा रहा है कि काटील जी को मंत्री पद से हटा दिया जाय क्योंकि कुछ लोग मरते रहे और वह कपड़े बदलते रहे, जैसे राजधानी में आतंकवादी हमला न होकर कोई फैशन परेड हो रही थी. अब मैं क्या कहूं? मीडिया मेरे पास आया ही नहीं बरना मैं भी कम-से-कम दो बार तो कपड़े बदलता ही. सारी दुनिया यह सब देख रही थी. अगर काटील जी एक ही ड्रेस में बार-बार सबके सामने आते तो क्या यह सही होता? क्या दुनिया यह नहीं कहती कि देखो इस देश का तो ग्रह मंत्री ही कितना गरीब है. अब कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि काटील जी को तो जनता ने हरा दिया था फ़िर उन्हें मंत्री क्यों बनाया गया? अब इस पर भी मैं क्या कहूं? जिन्होनें काटील जी को मंत्री बनाया उन्होंने ही मुझे भी प्रधानमन्त्री बनाया. जनता ने न काटील जी को चुना और न ही मुझे. अब अगर उन्हें हटाऊँगा तो मुझे भी हटना पड़ेगा.

आप लोगों की इस शिकायत के बारे में मुझे भी आप लोगों से कुछ कहना है. अगर मैडम ने मुझे मनोनीत कर दिया तो क्या हो गया? यह देश उन का है, उन की सास ने उन्हें मुहं दिखाई में दिया था. उनकी सास को उनके पिता जी ने उपहार में दिया था, जिनको राष्ट्र के पिता जी ने अंग्रेजों से लेकर सौंपा था यह कहते हुए कि 'लो बेटा संभालो, आज से यह मुल्क तुम्हारा है, जैसे मर्जी चलाओ. इस देश में एक तुम्हारा परिवार ही है जो किसी लायक है. इस बात का ध्यान रखना और परिवार के हाथ से कभी मत निकलने देना. हाँ, अगर कभी जरूरत पड़ जाय तो किसी बफादार को मनोनीत कर देना जो तुम्हारे परिवार से पूछ कर इस देश को चलाये.' अब क्या मुझे ऐसी बातें सुना कर आप लोग राष्ट्रपिता और देश के एक मात्र लायक परिवार का अपमान नहीं कर रहे हैं? इस देश में प्रजातंत्र है इस लिए हर समय कुछ न कुछ बोलते रहना क्या सही है? आप लोगों को इस परिवार का एहसान मानना चाहिए. भूल गए क्या कि जब पिछली बार आप लोगों ने ऐसी जली-कटी बातें कही थीं तो मैडम की सास ने इमरजेंसी लगा दी थी? अब क्या आप यह चाहते हैं कि मैडम भी इमरजेंसी लगा दें और फ़िर भुगतें आप दो-दो आतंकवाद, एक आतंकवादिओं का और दूसरा इमरजेंसी का? मुझे मैडम की आम जनता से बहुत प्यार है इस लिए आपका मन रखने के लिए मैंने अपना नाम बदल कर मनोनीत सिंह रख लिया है. अब तो आप खुश हो जाइए.

अब रही बात आतंकवाद से निपटने के लिए कानून बनाने की. इस के बारे में मैडम का कहना है कि क्या हम यह कानून इस लिए बना दें कि भागजा पार्टी ऐसा कह रही है? क्या वह लोग मैडम के परिवार से ज्यादा लायक हैं? अगर इस देश की जनता चाहती है कि ऐसा कोई सख्त कानून बने तो उन्हें भागजा पार्टी को मजबूर करना होगा यह कहने के लिए कि वह नहीं चाहती ऐसा कानून बने. जैसे ही भागजा यह कहेगी मैडम तुंरत एक सख्त कानून बनाने का हुक्म दे देंगी. कानून अगर बनेगा तो उस का सारा क्रेडिट मैडम को ही मिलना चाहिए. बैसे जनता तो यह जानती ही है कि ऐसे कानून से कुछ होने वाला नहीं है. यह कानून ज्यादा से ज्यादा आतंकवादियों को अदालत से सजा ही तो दिलवा पायेगा. उन्हें सजा मिलेगी या नहीं यह फ़ैसला तो मैडम करेंगी. अफजल का केस देखिये न. अदालत ने उसे सजा दे दी, पर क्या उसे सजा मिली?

एक बात और मेरी समझ में नहीं आती. जब आतंकवादियों के हमले में लोग मरते हैं तभी यह चीख पुकार मचती है. जब ब्लू लाइन बस किसी को कुचलती है तो इतनी चीख पुकार नहीं मचाते आप लोग. बस थोड़ा शोर मचा कर चुप हो जाते हैं. ऐसा ही तब होता है जब बाइक सवार किसी को मारते हैं, जब कोई बीएम्डव्लू किसी को कुचलती है, या बीआरटी पर कोई मरता है, जब पुलिस किसी को मार देती है, या जब कोई आम आदमी ही किसी दूसरे आम आदमी को मार देता है, या जब अस्पतालों की लापरवाही से लोग मर जाते हैं. और क्या-क्या गिनाऊँ? आप सब समझते हैं पर फ़िर भी चिल्लाते हैं. हम आतंकवादियों को सजा दे दें और अपना वोट बेंक खो दें, ताकि भागजा पार्टी फ़िर सरकार बना ले. अब ऐसी बेबकूफ तो हैं नहीं मैडम. और फ़िर राष्ट्रपिता की आत्मा को कितना दुःख पहुंचेगा इस से? पिछली बार जब सत्ता परिवार के हाथ से छिनी थी तब राष्ट्रपिता कितना रोये थे मैडम और उन की सास के सपनो में. उसके बारे में सोच कर अभी भी मैडम की आँखें भर आती हैं.

इन सब समस्याओं से बचने के लिए एक सुझाव है मेरा. हमें चुनाव कराने का सिस्टम बंद कर देना चाहिए. बस जहाँ जरूरत हो वहां मैडम मनोनीत कर दें. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और कुछ मंत्री तो मनोनीत हैं ही. सभी मनोनीत हो जाएँ तो ठीक रहेगा. ऐसा हो गया तो देखियेगा, मनवानी जी, हरात जी लाइन में सब से आगे खड़े मिलेंगे मनोनीत होने के लिए. हर आदमी मनोनीत होगा. पुलिस मनोनीत, अपराधी मनोनीत. सजा देने वाला मनोनीत, सजा पाने वाला मनोनीत, कत्ल करने वाला मनोनीत, जिसका कत्ल किया जायेगा वह भी मनोनीत, आतंकवादी मनोनीत, बम हमले में मरने वाला मनोनीत, पति मनोनीत, पत्नी मनोनीत, पिता मनोनीत, माता मनोनीत, प्रेमी मनोनीत, प्रेमिका मनोनीत. फ़िर देश का नाम भी बदल देंगे, मनोनीतदेश. जैसे बांग्लादेश बैसे मनोनीतदेश.

मैडम के देशवासियों, आप इस पर विचार करें. आतंकवाद, काटील जी, मैं, इन सब के बारे में सोचना बंद कर दें. अपनी बारी का इंतज़ार करें. जल्दी ही हम ईश्वर को भी मनोनीत कर देंगे. ईश्वर से प्रार्थना करें कि मैडम आप को मनोनीत करें कुर्सी पर बैठने के लिए, और आपके पड़ोसी को बम से मरने के लिए.

जय मनोनीत देश.

Monday 15 September, 2008

गाँधी जी के तीन बन्दर - नए अवतार में

गाँधी जी के तीन बंदरों ने नया अवतार लिया है। आप भी प्रणाम करें इस अवतार को और स्वयं को धन्य करें। इस से आपको आतंक से छुटकारा मिलेगा।
टीओआई से साभार

Saturday 13 September, 2008

सोते समय मेडम साड़ी में होती हैं

हमारे पड़ोस की एक महिला एक अजब शौक रखती थीं,
नए-नए गाउन पहनती थीं,
फ़िर सब को दिखाती फिरती थीं,
हमारी कालोनी में चार सब्जी वाले आते थे,
वह एक-एक कर गाउन बदलतीं,
हर सब्जी वाले से जम के मोल-भावः करतीं,
सब्जी उनके पति मंडी से लाते,
हर कबाड़ी से अखबार का रेट तय करतीं,
अखबार उन के पति पड़ोस से ले कर पढ़ते,
कालोनी में कुछ लोग कुत्ते पालते थे,
वह नए गाउन पहन कर कुत्तों को घुमातीं,
इस प्रकार सब को अपने गाउन दिखा पातीं.

धीरे-धीरे यह ख़बर चारों और फ़ैल गई,
वह 'गाउन वाली मेडम' मशहूर हो गईं,
एक दिन टीवी वाले आ गए,
उन के गाउन बदलते रहे,
टीवी वालों के केमरे चलते रहे,
चेक वाला गाउन, सब्जी का मोल-भावः,
स्ट्रिप वाला गाउन, कबाड़ी से झगड़ा,
लाल गाउन, वर्मा जी का कुत्ता,
हरा गाउन, शर्मा जी का पप्पी,
फ़िर शुरू हुआ सवाल-जवाब का सिलसिला,
आप शिक्षित हैं नौकरी क्यों नहीं करतीं?
दफ्तर में गाउन अलाउड नहीं है,
एक टीवी वाला बोला,
मेडम का एक फोटो नाईट गाउन में हो जाए,
पति ने सर खुजाया,
शर्माते हुए बताया,
सोते समय मेडम साड़ी में होती हैं.

Friday 12 September, 2008

क्या रिश्ता था गौरी का भुवन शोम से?

भुवन शोम रेल कंपनी में एक बहुत बड़े अफसर थे. गौरी दूर-दराज के गाँव की एक लड़की थी. कोई समानता नहीं. दोनों के सामजिक स्तर में जमीन आसमान का फर्क था. फ़िर भी जब दोनों मिले तो एक अजीब सा सम्बन्ध बन गया, जिसने शोम साहब को वह करने पर मजबूर कर दिया जो वह कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे.

परसों मैंने टीवी पर फ़िल्म देखी, भुवन शोम. आज से लगभग ३६-३७ साल पहले जब मैं देहरादून में था यह फ़िल्म देखी थी. हॉल में गिने-चुने लोग थे. इस दौरान एक बच्चा रोने लगा. एक सज्जन जोर से चिल्लाये थे कि चुप कराओ इसे, बैसे ही फ़िल्म समझ में नहीं आ रही और यह रोये जा रहा है. पर मुझे यह फ़िल्म बहुत अच्छी लगी थी. उस समय मैंने पसंद किया था सब कलाकारों का अभिनय, कहानी, संगीत, फोटोग्राफी, निर्देशन, यानी कि सब कुछ. आज जिस बात ने मुझे प्रभावित किया वह है मानवीय सम्बन्ध. लोग जीवन भर साथ रहते हैं पर कोई सम्बन्ध नहीं बनता. कहीं लोग मिलते हैं और ऐसे सम्बन्ध बन जाते हैं जो उनके जीवन की दिशा ही बदल देते हैं. ऐसा ही सम्बन्ध बना था शोम साहब और गौरी में.

जैसा मैंने पहले कहा शोम साहब रेल कम्पनी में एक बड़े अफसर थे. कायदे-कानून के बारे में बहुत कड़क. इतने कड़क कि उन की पत्नी जब तक जिन्दा रहीं इस कड़क की चुभन महसूस करती रहीं. एक बेटा था, रेल में ही काम करता था. एक दिन कुछ गड़बड़ कर बैठा, शोम साहब ने उसे नौकरी से निकाल दिया. वह एक स्वामी के चक्कर में आ गया और घर से चला गया. शोम साहब अकेले हो गए. एक दिन मिली शोम साहब को शिकायत एक और रेल टिकट बाबू पटेल की. जांच करने गए. शिकायत को सही पाया. रिपोर्ट बनाई और फ़ैसला किया कि पटेल को नौकरी से निकाल देंगे.

शोम साहब को शिकार करने का ख्याल आया. किसका शिकार करें? तय किया कि पक्षियों का शिकार करेंगे. चल पड़े शिकार पर. दूर बहुत दूर, रेत ही रेत. वहां एक ग्रामवासी ने अपने घर में टिकाया और अपनी बेटी से कहा कि वह उन्हें शिकार करने में मदद करे. यह थी गौरी. उस ने शोम साहब को शिकार कराया. शोम साहब किसी पक्षी को मार तो नहीं सके, हाँ एक पक्षी उन की बन्दूक की आवाज से बेहोश जरूर हो गया. इस दौरान शोम साहब को पता चला कि गौरी की शादी हो गई है, पर अभी गौना नहीं हुआ है. उसका पति रेल में टिकट बाबू है. शोम साहब ने कमरे में गौरी के पति की फोटो देखी. चौंक गए, यह था पटेल जिसे नौकरी से निकालने का फ़ैसला वह कर चुके थे. इस बारे में गौरी से बात हुई. जब शोम साहब ने कहा कि उस का पति घूस लेता है तो वह नाराज हो गई और कहा, 'वह घूस नहीं लेते, उनके काम की पगार कंपनी उन्हें देती है. वह सवारियों को आराम से रेल में बैठाते हैं और सवारियां उन्हें चाय-पानी के पैसे देती हैं'. शोम साहब ने कहा यह घूस है, गौरी ने कहा यह घूस नहीं है. फ़िर गौरी ने उन्हें बताया कि उस के पति के दफ्तर में एक शोम साहब हैं जो बहुत दुष्ट हैं, सब उन से डरते हैं. वह उन के बारे में अच्छी तरह जानती है, कोई सवारी उन्हें चाय-पानी के पैसे नहीं देती इस लिए वह उस के पति की शिकायत करते हैं.

शोम साहब वापस लौटने लगते हैं. गौरी उन्हें गाँव के बाहर तक विदा करने आती है. उस समय वह उनसे पूछती है कि क्या चाय-पानी के पैसे लेना घूस है. शोम साहब हाँ कहते हैं. वह कहती है कि आप भी रेल में काम करते हैं और शोम साहब को जानते होंगे. उन्हें कहियेगा कि मैं अपने पति को लिखूँगी कि वह अब ऐसा न करें. वह उस की बात मान लेंगे. बस वह उन्हें नौकरी से न निकालें, नहीं तो उस का गौना नहीं हो पायेगा और वह अपनी ससुराल नहीं जा सकेगी.

शोम साहब अपने दफ्तर लौटते हैं. पटेल को तलब किया जाता है. शोम साहब उसे अपनी तैयार की रिपोर्ट पढ़वाते हैं. फ़िर वह कहते हैं, 'जाओ इस बार तुम्हें माफ़ किया. अब दुबारा ऐसा किया तो गई नौकरी तुम्हारी'. शोम साहब सारी जिंदगी जिन नियमों के लिए काम करते रहे, जिन नियमों ने उनकी अपनी पत्नी को जीवन भर दुखी रखा, जिन नियमों के लिए उन्होंने अपने बेटे को नौकरी से निकाल दिया और हमेशा के लिए उसे खो दिया, वह नियम उन्होंने भंग कर दिए, एक लड़की के लिए, जिसे वह कुछ दिन पहले ही मिले थे. उस के घूसखोर पति को माफ़ कर दिया उन्होंने. क्यों किया उन्होंने यह? क्या इस लिए कि गौरी अपनी ससुराल जा सके? पर क्या रिश्ता था उन का गौरी से? क्या लगती थी गौरी उनकी? क्या उन्होंने गौरी में अपनी उस बेटी को देखा जिस से ईश्वर ने उन्हें वंचित रखा, और जिस की चाह जीवन भर उन के मन के एक खाली कौने में सोती-जागती रही? मुझे तो यही सच लगता है. गौरी को मिल कर शोम साहब के मन का वह खाली कौना भर गया. और फ़िर कौन पिता अपनी बेटी की विदाई का कर्तव्य पूरा नहीं करेगा? यही वह मानवीय सम्बन्ध हैं जहाँ एक सरकारी अफसर एक पिता से हार जाता है. कुछ लोग कहेंगे कि बेटे के केस में तो एक पिता एक सरकारी अफसर से हार गया था. हाँ यह सच है पर शायद यही फर्क होता है एक बेटे और एक बेटी में. बेटे के केस में शायद दिल और दिमाग दोनों काम करते हैं, और बेटी के केस में सिर्फ़ दिल.

आप क्या सोचते हैं इस बारे में? जरूर बताइयेगा.

Wednesday 10 September, 2008

'सत्य' नाम था उस का

सुबह होते होते,
शहर में हड़कंप मच गया,
लोग जमा होने लगे दौराहों पर,
तिराहों और चौराहों पर.
कचहरी की इमारत के नीचे,
जहाँ 'सत्यमेव जयते' लिखा है,
एक आदमी निश्चल लेटा हुआ है,
लोग एक दूसरे से पूँछ रहे हैं,
'मर गया क्या?',
'कौन है?',
'कहाँ से आया है?',
सवाल बढ़ने लगे,
सवालों के साथ लोग बढ़ने लगे,
एक भीड़ में बदलने लगे,
पुलिस वाले विस्तरों से बाहर निकल आए,
आदतन भीड़ को तितर-वितर करने लगे,
लाठी भांजने लगे,
सीधा-सादा सवाल बदल गया झगड़े में,
व्यवस्था और कानून वनाम भीड़ का जूनून,
'पुलिस हाय-हाय',
सत्ता के दलाल लगे नाश्ता करने,
जाति, धर्म, भाषा, नफरत,
गोली चली, शहर में कर्फ्यू लगा,
दूसरी सुबह के अखवार में ख़बर आई,
एक अनजान आदमी मर गया,
उस का फोटो देखा तो में चौंक गया,
यह तो वही है,
मैं जानता हूँ उसे,
बचपन में साथ खेले थे हम,
बड़े हुए तो विछ्ड़ गए थे,
'सत्य' नाम था उस का.

Tuesday 9 September, 2008

मेरी बात अब मानो भी

तुम ने मुझे पराया कह कर,
अलग किया अपने से,
खुशियों के सारे पल खो गए,
एक टूटे सपने से.

जड़ें पुराने संबंधों की,
काट नहीं पाया मैं,
जुड़ा हुआ अपने अतीत से,
तुम्हें नहीं भाया मैं.

कितनी कठिन परीक्षा थी वह,
दोनों करवट हार मेरी,
हारा तो तुम को खो बैठा,
जीता कटती जड़ें मेरी.

हरी शाख से टूटे पत्ते,
हवा उड़ाती इधर-उधर,
तुमने अपनी जीवन शाखा,
मुट्ठी में पकड़ी कस कर.

एक एक करके सारे पत्ते,
उस शाखा से टूट गए,
तीव्र हवा के झोंको से सब,
इधर-उधर को निकल गए.

खोज रही फ़िर तुम 'अपना',
महफ़िल में अनजानों की,
लौट आओ तुम अभी समय है,
मेरी बात अब मानो भी.

Sunday 7 September, 2008

लगता है भारत फ़िर से गुलाम हो गया है

मैं टीवी पर खबरें नहीं देखता। बस अखबार से पता लगती हें मुझे खबरें। आज सुबह जब अखबार देखा तो पता लगा कि न्यूक्लियर सप्लाई ग्रुप ने इस करार पर अपनी स्वीकृति दे दी है। पढ़ कर अच्छा लगा, मन के एक कौने में कुछ गर्व भी अनुभव हुआ। पर तुंरत ही मन के दूसरे कौने से आवाज आई, सावधान। इस मसले पर जो कुछ भी हुआ है, और जिस तरीके से हुआ है, उस से मन में एक अविश्वास की भावना पैदा हो गई है। भारत एक प्रजातांत्रिक देश है और मैं इस देश का एक नागरिक हूँ। एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे अपने देश की प्रजातांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार पर भरोसा होना चाहिए, पर न जाने क्यों मुझे ऐसा भरोसा नहीं हो पाता। पूरी कोशिश करता हूँ भरोसा करने की, बाबजूद इसके कि सरकार का मुखिया जनता द्वारा नहीं चुना गया बल्कि एक व्यक्ति द्वारा उस कुर्सी पर बिठाया गया है। पर इस एक बात ने मन में एक कसक पैदा कर दी है। दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र अपनी सरकार के मुखिया पद के लिए एक ऐसा व्यक्ति नहीं चुन पाया जिसे जनता ने चुना हो। इतनी बड़ी जनसँख्या का प्रजातंत्र सिमट कर एक व्यक्ति की मुट्ठी में बंद हो गया, और वह भी एक ऐसा व्यक्तित्व जो जन्म से भारतीय ही नहीं है।

कभी-कभी मुझे लगता है जैसे भारत फ़िर से गुलाम हो गया है। या भारत तो स्वतंत्र है पर भारत सरकार गुलाम हो गई है.

Friday 5 September, 2008

आज गुरु जी का दिन है

मैंने कह तो दिया कि आज गुरु जी का दिन है पर मन नहीं मानता. आज कल गुरु तो रहे नहीं. आज कल तो शिबू सोरेन को गुरु जी कहा जाता है. इस लिए क्या यह कहें कि आज शिक्षक दिवस है? यह भी कुछ जमता नहीं, क्योंकि आज कल के शिक्षक तो शिक्षा का व्यवसाय करते हैं. तो क्या कहें कि आज टीचर्स डे है? हां यह ठीक रहेगा. आज कल टीचर्स ही तो नजर आते हैं इस देश में. सब टीच कर रहे हैं, कोई स्कूल में, कोई स्कूल के बाहर, कोई दफ्तर में, कोई सरकार में, कोई घर में, कोई बाजार में. ज्यादा का एक ही मन्त्र है - टीच करो और टीच करते-करते उसका उल्टा करो.

पिछली साल में आज के दिन नोयडा में हल्दीराम में गया था. सारी मेजें भरी थीं. खूब शोर मच रहा था. मैंने पूछा यह सब क्या है? मेरे साथी ने बताया, 'आज टीचर्स डे है. आज टीचर्स की पूजा होती है. देखो न स्टूडेंट्स कैसे दौड़-दौड़ कर टीचर्स के लिए खाने की चीजें ला रहे हैं'. आज तो मैं वहां नहीं गया पर मुझे विश्वास है कि वहां आज भी ऐसा ही हो रहा होगा.

मेरी पोती के स्कूल में आज फंक्शन है. बच्चे टीचर्स की शान में गीत गायेंगे और नाटक खेलेंगे. मेरी पोती भी एक गीत गाएगी. उसे में अभी स्कूल पहुँचा कर आया हूँ. बच्चे बहुत उत्साहित लगे. टीचर्स के चेहरे पर ऐसा कोई विशेष उत्साह नजर नहीं आया. बैसे भी सारे साल टीचर्स थकी-थकी सी लगती हैं. सच कहूं तो वह टीचर्स कम, किसी शिक्षा की फेक्ट्री की कर्मचारी ज्यादा नजर आती हैं. पुरूष टीचर्स तो किसी तरह से टीचर लगते ही नहीं. कुछ को देख कर तो डर लगता है.

बहुत पहले, करीब तीस साल पहले, इमरजेंसी से पहले, की बात है. एक टीचर सुबह दूध सप्लाई करते थे. मैं भी उन से दूध लेता था. एक दिन उन्होंने बताया कि उन का तबादला पास के स्कूल में हो गया है. हम सबने वधाई दी. वह कहने लगे, 'साला प्रिंसिपल ज्वाइन नहीं करने दे रहा. उस के एक चमचे कि जगह आया हूँ मैं'. कुछ दिन बाद दूध के साथ उन्होंने लड्डू भी दिया. पता चला कि उन्होंने ज्वाइन कर लिया है. फ़िर पूछने पर उन्होंने बताया, 'मैंने चोकीदार को पटाया, उसने प्रिंसिपल के आफिस की खिड़की खुली रखी. मैं सुबह खिड़की से अन्दर दाखिल हुआ और हाजरी रजिस्टर में हाजरी लगा दी. जब प्रिंसिपल आया तो बहुत झल्लाया पर क्या कर सकता था, मैंने तो ज्वाइन कर लिया था,साले का मुहं देखने लायक था'.

इस से भी पहले की बात है. मैं देहरादून में सर्विस करता था. एक टीचर हमारे पास के मकान में रहते थे. एक दिन हम दोस्तों ने एक पार्टी रखी, उन्हें भी बुलाया. उन्होंने कुछ ज्यादा ही पी ली और अपनी गाथा ले कर शुरू हो गए. जिस बात पर वह ज्यादा जोर दे रहे थे, वह थी कि उन्हें कच्ची कलियों का रस पीने का शौक है. मजे की बात यह है कि बच्चे और उनके अविभावक उन्हें गुरु जी कहते थे.

हमारे बचपन के एक साथी टीचर बन गए. सब उन्हें मास्टर जी कहते थे. वह स्कूल में कम और घर में ज्यादा पढ़ाते थे. जो घर में उन से नहीं पढ़ता था फेल हो जाता था. शहर में उनकी बहुत इज्जत थी. पैसे कमाने के मामले में भी वह हम सब साथियों से आगे थे.

आज टीचर्स डे है. हमारे इन सब टीचर्स की पूजा हो रही होगी.

नोट - सब टीचर्स ऐसे नहीं होते. कुछ अच्छे टीचर्स भी होते हैं. आप जरूर ही अच्छे टीचर होंगे. आपको मेरा प्रणाम.

Wednesday 3 September, 2008

सवालों का जंगल

मेरे मन में उग आया है,
सवालों का एक जंगल.

कुछ खुशनुमा सवाल,
मन चाहता है जिन्हें जिन्दा रखना,
पर जो सूख जाते हैं जल्दी ही,
वक्त की आंधी के थपेड़े खाकर.

कुछ कटीले,जहरीले सवाल,
मन चाहता है जिन्हें,
तुंरत उखाड़ फेंकना,
पर जो बढ़ते जाते हैं,
सुरसा के मुहं की तरह,
मन समा जाता है जिसमें,
नहीं बाहर आ पाता हनुमान की तरह,
और ख़त्म हो जाती है खोज,
सीता की तरह खोये जबाबों की.