दैनिक प्रार्थना

हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो


दैनिक प्रार्थना

है आद्य्शक्ति, जगत्जन्नी, कल्याणकारिणी, विघ्न्हारिणी माँ,
सब पर कृपा करो, दया करो, कुशल-मंगल करो,
सब सुखी हों, स्वस्थ हों, सानंद हों, दीर्घायु हों,
सबके मन में संतोष हो, परोपकार की भावना हो,
आपके चरणों में सब की भक्ति बनी रहे,
सबके मन में एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव हो,
सहानुभूति की भावना हो, आदर की भावना हो,
मिल-जुल कर शान्ति पूर्वक एक साथ रहने की भावना हो,
माँ सबके मन में निवास करो.

Saturday 23 March, 2013

शहीद दिवस

बचपन में पढ़ा था,
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशाँ होगा,
पूछा मैंने कई लोगों से,
कहाँ लगा है मेला?
पता नहीं, सब ने कहा.

टीवी देखा,
जोधपुर में लगा था मेला,
अदालत के बाहर,
सलमान, सैफ, तब्बू, नीलम,
पागल थे लोग इन्हें देखने को.

चेनल बदली,
कोटला में लगा था मेला,
आस्ट्रेलिया आउट,
भारत क्रीज पर.

फिर चेनल बदली,
एमपी बोले,
संजय को छमादान दो,
निर्दोष है बेचारा.

फेसबुक खोला,
राजघाट पर अनशन,
कीचड़ की राजनीति,
सत्ता की लालसा.

क्या गलत पढ़ा था?
शहीदों के बारे में,
नहीं सही पढ़ा था,
शत-शत नमन उन्हें,
न लगे मेला कहीं,
वह जिन्दा हैं हमारे दिल में.

Friday 15 March, 2013

स्वतंत्र भारत का आम नागरिक

पिछले ५० वर्षों से देख रहा हूँ मैं उसे,
सबसे अलग, लाईन में सबसे पीछे |

कौन है वह? क्या परिचय है उसका?

कभी देखा नहीं उसे किसी उत्सव या भोज में,
जहाँ होते हैं निमंत्रित गणमान्य नागरिक,
समाज के सभ्रांत व्यक्ति,
न ही देखा कभी उसे किसी विचार गोष्टी में,
जहाँ होते है एकत्र बुद्धिजीवी,
करते हैं चर्चा खुद से असंबंधित विषयों पर,
गरीबी, भूख, उत्पीडन, झुग्गी, गंदगी, प्रदूषण,
न छपा कभी उसका चित्र समाचार पत्रों में,
न दिखाई दी उसकी तस्वीर टीवी पर |

फिर भी वह अनजान नहीं लगता,
कहीं यह वही तो नहीं,
लड़ी जाती है हर लड़ाई जिसके लिए,
हर युग में, हर पक्ष द्वारा,
जो होता है शाषित अपने ही सेवकों द्वारा,
जो होता है पीड़ित अपने ही रक्षकों द्वारा,
जो है समाज का आधार विन्दु,
पर होता है उसी समाज द्वारा उपेक्षित,
जब तब उसे एक नया नाम दे दिया जाता है,
केटल क्लास, मेंगो पीपल, बाहर का आदमी |

निस्संदेह यह वही है,
एक आम नागरिक,
स्वतंत्र भारत का |

Thursday 14 March, 2013

आजादी !!!

मनुष्य,
स्वभाव से स्वतंत्र,
हो जाता है न जाने क्यों,
व्यवहार में परतंत्र |

देता है दोष,
व्यवस्था को, समाज को,
कर देता है अनदेखा,
अनगिनत मकड़ी के जालों को,
बुन लिए हैं जो उसने,
अपने चारों और |

जाले स्वार्थ के,
काम, क्रोध और मोह के,
लिप्सा. लोलुपता के,
दूसरों को खुद से छोटा समझने की चाह के,
आम से खास बनने के |

पर बन नहीं पाता कुछ भी,
फंस जाता है जालों की भूलभुलैया में,
छटपटाता है,
नहीं निकल पाता बाहर,
हो पाता है स्वतंत्र तभी,
जब एक दिन यह मन पंछी,
उड़ जाता है उन्मुक्त गगन में,
निकल कर शरीर के पिंजरे से बाहर |