दैनिक प्रार्थना

हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो


दैनिक प्रार्थना

है आद्य्शक्ति, जगत्जन्नी, कल्याणकारिणी, विघ्न्हारिणी माँ,
सब पर कृपा करो, दया करो, कुशल-मंगल करो,
सब सुखी हों, स्वस्थ हों, सानंद हों, दीर्घायु हों,
सबके मन में संतोष हो, परोपकार की भावना हो,
आपके चरणों में सब की भक्ति बनी रहे,
सबके मन में एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव हो,
सहानुभूति की भावना हो, आदर की भावना हो,
मिल-जुल कर शान्ति पूर्वक एक साथ रहने की भावना हो,
माँ सबके मन में निवास करो.

Saturday 12 April, 2008

जाति ईश्वर का विधान नहीं है

भारतीय समाज में जति हमेशा से चर्चा का विषय रही है और आगे भी रहेगी. जति क्या है और सामाजिक जीवन मैं उसका क्या महत्त्व है? मैं हमेशा से यह विश्वास करता हूँ कि जाति एक सामाजिक व्यवस्था है, उस का किसी धर्म या परिवार से कोई सम्बन्ध नहीं है. मनुष्य एक परिवार मैं जन्म लेता है. उस परिवार का एक धर्म होता है. यह धर्म उस मनुष्य की पहचान होती है. यह धर्म उस के साथ इस संसार मैं आता है और उस के साथ इस संसार से जाता है. मनुष्य की और जितनी पहचान हैं वह सब इस संसार मैं आकर उस के साथ जुड़ती हैं. जाति भी मनुष्य की एक ऐसी पहचान है जो ईश्वर ने उसे नहीं दी पर समाज ने उस के साथ जोड़ दी.

जाति मनुष्य के कर्म की और इंगित करती है. उसे जन्म से जोड़ना ग़लत है. हम जाति शब्द की जगह कोई और शब्द भी प्रयोग कर सकते हैं. जाति के नाम पर जो ग़लत बातें हो रही हैं उन के लिए धर्म को दोषी ठहराना ग़लत है. धर्म का जाति से कुछ लेना देना नहीं है. जातिगत व्यवस्था मैं कोई बुराई नहीं है. बुराई है जाति को आधार बनाकर दूसरों से अपने को ऊंचा साबित करना. जाति को धर्म से जोड़ कर समाज को वर्गों मैं विभाजित करना, उन वर्गों को आपस मैं लड़वाना और इस सब को ईश्वर का विधान बताना, यह ग़लत है.

जाति को लोगों ने पहले भी अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए प्रयोग किया है और आज भी कर रहें हैं. समस्या वहीं की वहीं है, सिर्फ़ लोगों के रोल बदल गए हैं. पहले तथाकथित ऊंची जाति वाले जाति के बीच मैं धर्म और भगवान् को लाकर अपनी स्वार्थसिद्धि करते थे, और अब तथाकथित नीची जाति वाले आरक्षण के आधार पर अपनी स्वार्थसिद्धि कर रहे हैं. रोज नए वर्ग बन रहें हैं. आरक्षण पा सकें इस के लिए आन्दोलन हो रहे हैं. दलित राष्ट्रपति बन कर भी दलित ही रहता है. जो पहले जाति को जन्म से ज़ोड़ने के ख़िलाफ़ थे अब वही लोग जाति से जन्म को जोड़ रहे हैं. और जो लोग जाति से जन्म को जोड़ते रहे हैं वह अब जाति से जन्म को जोड़ने के ख़िलाफ़ हैं. इसलिए किस को दोष दिया जाए?

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