भारतीय संविधान मैं जितनी संवेधानिक संस्थाएं हैं उनमें सबसे अधिक अधिकार विधायिका को दिए गए हैं. यह एक बिडम्बना ही है की इस संस्था के सदस्यों के लिए कोई भी शेक्षणिक, चारित्रिक, व्यावहारिक योग्यता का प्रावधान नहीं किया गया. अन्य सभी संस्थाओं के लिए योग्यता की लम्बी लिस्ट बनाईं गई है. इस का कारण शायद यह है कि संविधान की रचना ख़ुद विधायिका ने की. 'अँधा बांटे रेबड़ी अपने अपनों को दे' कहावत पूरी तरह चरितार्थ हो गई है यहाँ.
केवल एक अनपढ़ ही नहीं, एक अपराधी भी विधायिका का सदस्य बन सकता है. जो स्वयम कानून का सम्मान नहीं करता वह विधायिका का सदस्य बन कर कानून बनाने का अधिकारी हो जाता है. जो आज जेल मैं है वह कल छूटकर मंत्री बन सकता है. जिस कानून को समझने के लिए कई डिग्रियाँ लेनी पड़ती हैं उसे बनाने का अधिकार जिन्हें दिया गया है उन में अंगूठा-टेक भी हो सकते हैं. विधायिका का सदस्य बनते ही आज का अपराधी कल का मान्यवर हो जाता है. कल तक पुलिस जिसकी पिटाई करती थी आज उस के विधायिका का सदस्य बन जाने पर उसे सुरक्षा प्रदान करती है. आज तक जो बस मैं सफर करता था, विधायिका का सदस्य बनते ही कई कारों का मालिक बन जाता है. उसके चारों और पैसा ही पैसा नज़र आता है. मतलब यह कि विधायिका का सदस्य बनते ही व्यक्ति अपने आप मैं एक महान शक्तिशाली शासक बन जाता है, जिसे कोई छू भी नहीं सकता. पर जो किसी को भी कुछ भी कह या कर सकता है. जिस जनता के वोट से उसे यह अधिकार मिलते हैं उस जनता का वह राजा बन जाता है और उस पर निष्कंटक शासन करता है.
विधायिका और दूसरी संवेधानिक संस्थायों के बीच मैं जो खींचतान चल रही है वह अत्यन्त शर्मनाक है. क्या भारतीय संविधान एक अभिशाप बन गया है? क्या इन समस्याओं का कोई निदान नहीं है? चुनाव आयोग और न्यायपालिका कोशिश कर के भी इन पर लगाम नहीं लगा पा रही हैं. बल्कि उन पर ही चोट की जा रही है. भारतीय संविधान ने वोट की ताकत पर जो यह शक्तिशाली और निष्कंटक विधायिका बनाई है वह कहीं भारतीय प्रजातंत्र का ही गला न घोट दे, अब यह डर भी लगने लगा है.
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