चार अर्थशास्त्री,
जिन्हें सब कहते थे महान,
मनमोहन, चिदंबरम,
एहलुबालिया, सुब्बाराव.
सौंपी थी इनके हाथों में,
अर्थव्यवस्था की बाग़ डोर,
इतने साल दिखाते रहे सब्ज बाग़,
अब नजर आ रहे हैं,
कन्धों पर उठाये,
अर्थव्यवस्था की अर्थी .
हर व्यक्ति कवि है. अक्सर यह कवि कानों में फुसफुसाता है. कुछ सुनते हैं, कुछ नहीं सुनते. जो सुनते हैं वह शब्द दे देते हैं इस फुसफुसाहट को. एक और पुष्प खिल जाता है काव्य कुञ्ज में.
हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो
5 comments:
अर्थव्यवस्था की अर्थी कभी नहीं निकलती। वही लोगों की अर्थी निकालती रहती है। श्रम से कमाने वालों पर कोई संकट नहीं। जो बाजार के साथ खिलखिलाए थे वही उस के साथ रोए हैं।
आपकी बात भी एक तरह से सही है. पर आज भी यह महान अर्थशास्त्री उन्हीं की चिंता कर रहे हैं जो बाजार के साथ खिलखिलाए थे और अब रो रहे हैं. बैसे श्रम से कमाने वालों पर भी संकट आया हुआ है, मंहगाई ने तो उन्हें भी मार रखा है.
बहुत गंभीर भाव
सुखमय अरु समृद्ध हो जीवन स्वर्णिम प्रकाश से भरा रहे
दीपावली का पर्व है पावन अविरल सुख सरिता सदा बहे
दीपावली की अनंत बधाइयां
प्रदीप मानोरिया
ये सब तो नाम के ही अर्थशास्त्री निकले |
अजी एक ही उल्लु काफ़ी था गुलिस्थान (हिन्दुस्तान) को उजाडने के लिये आप ने चार चार नाम गिनवा दिये.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
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