नफरत का जहर फ़ैल रहा है,
प्रेम का अमृत सूख रहा है,
भूख इतनी बढ़ गई है,
आदमी आदमी को खा रहा है,
मानवता पशुता की और अग्रसर है,
अनैतिक विकास कहें या,
नैतिक विनाश?
हर व्यक्ति कवि है. अक्सर यह कवि कानों में फुसफुसाता है. कुछ सुनते हैं, कुछ नहीं सुनते. जो सुनते हैं वह शब्द दे देते हैं इस फुसफुसाहट को. एक और पुष्प खिल जाता है काव्य कुञ्ज में.
हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो
5 comments:
अनैतिक विकास कहें या,
नैतिक विनाश?
नैतिकता का तो विनाश ही होता जा रहा है
नैतिकता का विलुप्त होना ही अनैतिकता का विकास है जिस प्रकार प्रकाश के विलुप्त होने से अन्धकार छ जाता है.
Naitik vinash hi kahna hoga. achhi panktiyan hain.
बहुत अच्छा लिखा है आपने।
अनैतिक विकास या नैतिक विनाश? लेकिन हो तो विनाश ही रहा है, बहुत सुन्दर विचार
धन्यवाद
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