कल रात मेरी हथेली पर,
चाँद उतर आया.
पिछली ओला वृष्टि में टूट गई थी खपरेल,
उतर आया उसी टूटी खपरेल से,
चाँद मेरी हथेली पर.
विरह से तपता वदन,
काम से थकी दुखती हथेली,
चाँद का शीतल स्पर्श,
कंपा गया मुझे अन्दर तक,
सिहर कर मैंने करली हथेली बंद,
पर फिसल गया चाँद,
खाली रह गई बंद मुट्ठी.
मुट्ठी खोलती और चाँद को पकड़ती,
पर चाँद हर बार फिसल जाता,
उतर आया था जैसे बचपन,
उस रात मेरी झोंपड़ी में.
अटखेलियाँ करता रहा चाँद,
सारी रात मेरे सिरहाने,
कभी बन जाता मेरे माथे की बिंदी,
कभी चूम लेता मेरे होंटो को,
कभी नाक पर सुरसुरी करता,
कभी झांकता मेरी आंखों में,
मैं सिमट जाती, करबट बदलती,
चाँद सहला देता मेरे चेहरे को,
सारे वदन को,
कब नींद आ गई पता नहीं,
सपने में देखा,
तुम आए थे चाँद बन कर.
5 comments:
बहुत प्यारी दिल को छू लेने वाली रचना है.
अरे वाह ! बहुत सुंदर।
सपने में देखा,
तुम आए थे चाँद बन कर.
"भावनाओ की सुंदर अभिव्यक्ति "
Regards
mujhe to lag raha tha ye ki chaand wo wala to nahi jo abhi abhi hariyana men nikla hai. lekin abhivyakti bahut sashakt
कब नींद आ गई पता नहीं,
सपने में देखा,
तुम आए थे चाँद बन कर.
क्या बात है....
बहुत सुंदर
धन्यवाद
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