दैनिक प्रार्थना

हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो


दैनिक प्रार्थना

है आद्य्शक्ति, जगत्जन्नी, कल्याणकारिणी, विघ्न्हारिणी माँ,
सब पर कृपा करो, दया करो, कुशल-मंगल करो,
सब सुखी हों, स्वस्थ हों, सानंद हों, दीर्घायु हों,
सबके मन में संतोष हो, परोपकार की भावना हो,
आपके चरणों में सब की भक्ति बनी रहे,
सबके मन में एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव हो,
सहानुभूति की भावना हो, आदर की भावना हो,
मिल-जुल कर शान्ति पूर्वक एक साथ रहने की भावना हो,
माँ सबके मन में निवास करो.

Wednesday, 5 November 2008

मुस्लिम कौम के लिए पहली जिम्मेदारी किस की है?

अपने मुसलमान भाईयों और बहनों से मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ - मुस्लिम कौम के लिए पहली जिम्मेदारी किस की है - मुसलमानों की, या भारतीय समाज की, या भारत सरकार की, या दूसरे धर्मों के लोगों की? क्या आप इस बात से इन्कार करेंगे अगर मैं यह कहूं कि मुस्लिम कौम के लिए पहली जिम्मेदारी मुसलमानों की है? क्या मुसलमान अपनी यह जिम्मेदारी ईमानदारी से निभा रहे हैं? 

कहा जाता है कि अधिकांश मुसलमान गरीब हैं, गन्दी बस्तियों में रहते हैं, बीमार हैं, अशिक्षित हैं, राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल नहीं हैं. यह भी कहा जाता है कि सरकार ने उन के लिए कुछ नहीं किया. यह भी आरोप लगाया जाता है कि भारत में मुसलमानों का शोषण हो रहा है. धर्म के नाम पर उनके साथ ज्यादती की जा रही है. इन आरोपों में कितना सच है और कितना झूट, यह बहस का विषय हो सकता है. पर मेरी इस पोस्ट का विषय यह नहीं है. 

ऐसे मुसलमानों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जो पैसे वाले हैं. मुस्लिम धार्मिक संस्थानों के पास भी बहुत पैसा है. दुनिया के दूसरे मुल्कों से भी पैसा आता है. अगर यह पैसा इन मुसलमानों की जन्दगी का स्तर सुधारने में खर्च किया जाय तो कोई कारण नहीं है कि भारत के सारे मुसलमान एक अच्छी और इज्जतदार जिंदगी न गुजार सकें. पर ऐसा नहीं होता. यह पैसा बारूद खरीदने, बम धमाके करने और निर्दोष नागरिकों की जान लेने में खर्च किया जाता है. जो मुसलमान इस देश के लिए और अपनी कौम के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं वह उसका उल्टा कर रहे हैं. बम विस्फोट करने से, निर्दोष लोगों को मारने से, मुसलमानों की स्थिति कैसे सुधर जायगी? मुसलमान भी दूसरे आम इंसानों की तरह है, उन्हें भी जरूरत है एक खुशनुमां जिन्दगी की, पर कुछ मुसलमान ख़ुद ही उनसे यह जिंदगी छीन रहे हैं. झूठे, बेबुनियाद आरोप लगाकर उनके दिल में हिन्दुओं से डर पैदा कर रहे हैं, ताकि वह हिन्दुओं के नजदीक न आ सकें और इस देश की मुख्य धारा में शामिल न हो सकें. क्योंकि जब तक वह डरते रहेंगे तभी तक उन का नाजायज इस्तेमाल किया जा सकेगा. 

मैं अगर यह कहूं कि कुछ मुसलमान  ही मुसलिम कौम के दुश्मन बने हुए हैं तो यह  किसी तरह ग़लत नहीं होगा. मुस्लिम कौम के लिए पहली जिम्मेदारी मुसलमानों की है, सब मुसलमान यह जिम्मेदारी पूरी करें. हिन्दुओं पर भरोसा करें. दोस्ती का एक हाथ बढ़ायें हिन्दुओं की तरफ़, हिंदू उन्हें गले से लगा लेंगे. हिंदू हाथ फैलाए खड़े हैं, मेरे  मुसलमान भाइयों और बहनों आप एक कदम आगे तो बढ़ाइये. 

27 comments:

संजय बेंगाणी said...

आपने बर के छाते में हाथ डाला है.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

संजय भाई ने सही लिखा है.

adil farsi said...

जिम्मेदारी किसकी है..आप ने कहा है कि हमारा पैसा बम विसफोट व आतंक में काम आता है पर ऐसा है नही, या केवल भ्रम मात्र है हमारे हिंदू भाई भी सब मुसलिमों को संदेह की नजर से ना देखें,मेरा कहना है कि आतंकी अफजाल गुरु हो या प्रज्ञा, उल्फा,लिटटे या कोई अन्य इन सब का स्थान फाँसी है ये राजनीतिक दल सपा , बसपा. कांग्रेस.. अपनी जीत तक तो मुसलिम हितों की बात करते हैं जीतने के बाद सब आँखे फेर लेते हैं ये हमारे मुसलिम नेता ,मुसलिमों की नहीं अपनी झोली भरते हैं ऐसे ही बिकाऊ हमारे उलेमा व विद्वान हैं जो किसी भी दल के लिये फतवा देने को तैयार रहते हैं .स्थिति सुधरे तो कैसे सुधरे , मुसलिम भाईयों की तरफ से मैं आप की तरफ हाथ बढाता हूँ...स्वागत है आप का..

Unknown said...

आदिल भाई, आपने कहा - "हमारा पैसा बम विसफोट व आतंक में काम आता है पर ऐसा है नही, या केवल भ्रम मात्र है", अगर यह पैसा सही काम में खर्च होता है तो एक आम मुसलमान की जिंदगी बेहतर क्यों नहीं बनती? मैं जहाँ का रहने वाला हूँ वहां कुछ मुसलमानों के पास बहुत पैसा है, एक साहब ने तो रहने के लिए किला बनाया है, पर कौम की हालत में सुधार करने के लिए एक पैसा भी खर्च नहीं किया जाता.

Unknown said...

आदिल भाई, आप मेरी यह पोस्ट पढ़ने की कृपा करें:
http://kavya-kunj.blogspot.com/2008/10/blog-post_24.html

युग-विमर्श said...

प्रिय सुरेश जी, इस स्वतंत्र भारत में आप कुछ भी लिखने और कहने के लिए स्वतंत्र हैं. किंतु आप इसमें दूसरों की भागीदारी भी चाहते हैं, यह आश्चर्य की बात है. मैं भारत को एक क़ौम के रूप में देखता हूँ. कौमों को बांटने और उनकी पृथक-पृथक जिम्मेदारियां निश्चित करने का अलगाव वादी नजरिया मुझे नहीं सिखाया गया. इससे देश टूटता है. यह नजरिया सबसे पहले 1923 में विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक 'हिंदुत्व' में पेश किया था.मुसलमानों को एक पृथक क़ौम के रूप में देखकर सावरकर जी ने ही दो कौमों की बुनियाद रखी थी. परिणाम यह हुआ की उनके प्रिय शिष्य नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या इसलिए करदी की वे भारत को एक क़ौम समझते थे. कौन पिछडा हुआ है, अशिक्षित है, सभ्य और सुसंस्कृत नहीं है यह सबके मिलकर सोचने की बात है और भारत के हर चिंतनशील नागरिक की ज़िम्मेदारी है. रह गई बात मुख्य धारा की. यह कौन निश्चित करेगा कि भारत की मुख्य धारा क्या है. क्या भारतीय संविधान में किसी मुख्य धरा की चर्चा की गई है और मुसलमान उसका अनादर कर रहे हैं ? या यह मुख्य धरा आपकी कल्पनाओं की मुख्यधारा है जिसमें आप जबरन सबको देखना चाहते हैं.
राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रवाद के अन्तर को यदि आप समझ सकें तो बहुत सी बातें स्वतः स्पष्ट हो जाएँ.
आपका आदेश था कि मैं इस प्रसंग में अपने विचार अवश्य दूँ, इसलिए दे रहा हूँ. किंतु मैं किसी बहस या वितंडावाद में नहीं पडूंगा. आपकी सहमति और असहमति दोनों ही मुझे प्रिय है.

युग-विमर्श said...

प्रिय सुरेश जी, इस स्वतंत्र भारत में आप कुछ भी लिखने और कहने के लिए स्वतंत्र हैं. किंतु आप इसमें दूसरों की भागीदारी भी चाहते हैं, यह आश्चर्य की बात है. मैं भारत को एक क़ौम के रूप में देखता हूँ. कौमों को बांटने और उनकी पृथक-पृथक जिम्मेदारियां निश्चित करने का अलगाव वादी नजरिया मुझे नहीं सिखाया गया. इससे देश टूटता है. यह नजरिया सबसे पहले 1923 में विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक 'हिंदुत्व' में पेश किया था.मुसलमानों को एक पृथक क़ौम के रूप में देखकर सावरकर जी ने ही दो कौमों की बुनियाद रखी थी. परिणाम यह हुआ की उनके प्रिय शिष्य नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या इसलिए करदी की वे भारत को एक क़ौम समझते थे. कौन पिछडा हुआ है, अशिक्षित है, सभी नहीं है यह सबके मिलकर सोचने की बात है और भारत के हर चिंतनशील नागरिक की ज़िम्मेदारी है. रह गई बात मुख्य धारा की. यह कौन निश्चित करेगा की भारत की मुख्य धारा क्या है. क्या भारतीय संविधान में किसी मुख्य धरा की चर्चा की गई है और मुसल्ल्मान उसका अनादर कर रहे हैं ? या यह मुख्य धरा आपकी कल्पनाओं की मुख्यधारा है जिसमें आप जबरन सबको देखना चाहते हैं.
राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रवाद के अन्तर को यदि आप समझ सकें तो बहुत सी बातें स्वतः स्पष्ट हो जाएँ.
आपका आदेश था की मैं इस प्रसंग में अपने विचार अवश्य दे रहा हूँ. किंतु मैं किसी बहस या वितंडावाद में नहीं पडूंगा. आपकी सहमती और असहमति दोनों ही मुझे प्रिय है.

Unknown said...

डाक्टर शैलेश जैदी, समस्या तो यही है कि हम विचार विमर्श ही नहीं करना चाहते. मैं अपने विचारों में आपकी भागीदारी नहीं चाहता. मैं अपने विचारों पर आप की राय चाहता हूँ. आप कृपया इसे समझने की कोशिश करें. आज देश के सामने जो समस्याएं हैं उन पर व्यापक विचार विमर्श की आवश्यकता है. विचार विमर्श से गलतफहमियां दूर होती हैं. अगर आप यह कहेंगे - "स्पष्ट हो जाएँ. आपका आदेश था की मैं इस प्रसंग में अपने विचार अवश्य दे रहा हूँ. किंतु मैं किसी बहस या वितंडावाद में नहीं पडूंगा", तो विचार विमर्श आगे कैसे बढ़ेगा? कैसे यह गलतफहमियां दूर होंगी? कैसे लोग एक दूसरे के नजदीक आयेंगे?

आप कहते हैं - "भारत को एक क़ौम के रूप में देखता हूँ. कौमों को बांटने और उनकी पृथक-पृथक जिम्मेदारियां निश्चित करने का अलगाव वादी नजरिया मुझे नहीं सिखाया गया. इससे देश टूटता है". यह बहुत अच्छी बात है. मैं भी यही सोचता हूँ. यह बहुत अच्छा होगा कि इस देश के सारे नागरिक ख़ुद को एक कौम का हिस्सा समझें और उस के अनुसार आचरण करें. ऐसे ही भारत के सारे नागरिक इस देश की तरक्की में अपनी भागीदारी निभाएं. जो जैसे और जिस रूप में राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सकता है हो. राष्ट्र के लिए कुछ करे, उस पर वोझा न बने. समस्याओं के समाधान में भागीदार हो, ख़ुद समस्या न बने.

मेरा यह मानना है कि सामर्थ्य रखने वाले मुसलमान गरीब और अशिक्षित मुसलमानों की जिंदगी सुधारने के लिए आगे आयें? अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए उनके गरीब और अशिक्षित होने को एक मुद्दा न बना रहने दें. जितने ज्यादा मुसलमान सामर्थ्यवान बनेंगे, शिक्षित बनेंगे, उतना ही फायदा इस देश का होगा. देश का फायदा होगा तो सब का फायदा होगा.

मैं फ़िर यही कहूँगा, विचार विमर्श होना चाहिए, उसे चलते रहना चाहिए. बहुत सी समस्यायें तो विचार विमर्श के चलते रहने से ही दूर हो सकती हैं.

Unknown said...

डाक्टर शैलेश जैदी, आपने कहा - "राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रवाद के अन्तर को यदि आप समझ सकें तो बहुत सी बातें स्वतः स्पष्ट हो जाएँ."

राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रवाद के अन्तर को समझने की कोई बात ही नहीं है, क्योंकि राष्ट्र-वाद जैसी कोई बात होती ही नहीं. मैं किसी "वाद" में विश्वास नहीं करता. राष्ट्र-वाद जैसे शब्द कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा बनाये जाते हैं. मेरे विचार में यदि किसी सोच को प्रदूषित करना होता है तो उस के साथ "वाद" लगा दिया जाता है. राष्ट्र-प्रेम को प्रदूषित करने के लिए राष्ट्र-वाद का गठन किया गया है.

युग-विमर्श said...

प्रिय सुरेश जी, मेरे लिए सुखद आश्चर्य है कि आप मेरी बहुत सी बातों से सहमत हैं. विचार-विमर्श या वैचारिक आदान-प्रदान एक स्वस्थ समाज का प्रतीक है. किंतु यह उस समय सम्भव है जब दोनों पक्ष एक-दूसरे को सम्मान देना जानते हों. हिन्दी ब्लोग्धारियों के बीच मुसलामानों के लिए जिस शब्दावाली का प्रयोग हो रहा है वह शब्दावली मैं किसी धर्मावलम्बी या उसकी आस्था-विशेष के लिए नहीं कर सकता.
आप विचार-विमर्श भी चाहते हैं और जो प्रश्न उठाये जाते हैं उनके उत्तर भी नहीं देते. मैंने पूछा था क्या भारतीय संविधान में किसी मुख्य धरा का उल्लेख है ? यदि नहीं है तो इसे निर्धारित करने का अधिकार किसके पास है और क्यों है ? आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. केवल मुख्य-धारा मुख्य-धारा की पुनरावृत्ति ही करेंगे या इसे स्पष्ट भी करना चाहेंगे ? मुसलमानों की ज़िन्दगी सुधारने के लिए मुसलमान ही क्यों आगे आयें ? आप क्यों न आयें. यह कोई धर्म का मामला तो है नहीं यह एक सामाजिक दायित्व की बात है. क्या आप जिस समाज में हैं उसका हिस्सा मुसलमानों को नहीं समझते? कभी सामजिक स्तर पर आगे बढ़के तो देखिये.मेरी दृष्टि में इस देश में हिन्दुओं की हैसियत मुसलमानों के लिए बड़े भाई की है. और बड़े भाई के क्या कर्तव्य हैं यह आप खूब जानते है.

हिन्दीवाणी said...

सुरेश जी, आपके आग्रह पर मैं आपके ब्लॉग पर हाजिर हूं। इस लेख के संदर्भ में सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि मेरे जैसे लोग कोई राजनीतिक दल नहीं चलाते जो मुसलमानों को हिंदुओं से मिलने से रोक देंगे। न तो ये काम मुशीरुल हसन कर सकते हैं और न ही यूसुफ किरमानी और न ही सुरेश गुप्ता। आपने लगता है ठीक से हमारे देश भारत का भ्रमण नहीं किया है। मुझे यह सौभाग्य मिल चुका है। आपको बता दूं कि कतिपय ताकतों के प्रयासों के बावजूद तमाम शहरों, कस्बों और गांवों में हिंदू-मुस्लिम रिश्ते बहुत प्रगाढ़ हैं। वह पर इसे छिन्न-भिन्न करने की ऐसी कोशिशें बेकार गईं हैं। सुरेश जी, आप यह मान लें कि यह देश सेक्युलर है और सेक्युलर रहकर ही हम विकास कर सकते हैं। दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिका के चुनाव में आपने अभी यही देखा है। बराक हुसैन ओबामा वहां के सेक्युलर चरित्र की वजह से ही राष्ट्रपति बने। नीचे के लेख में आपने कहीं लिखा है कि आप दलितों को अलग नहीं मानते या न जाने क्या-क्या और उन्हें समान अवसर देना चाहते हैं...वगैरह-वगैरह... इस संदर्भ में मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि मनु महाराज जो संहिता लिख गए और किसे श्रेष्ठ बता गए या बाद में एक और अवधी काव्य ग्रंथ में दलितों के बारे में जो बयान किया गया...शूद्र, गंवार, पशु, नारी...उसके बारे में दलित अच्छी तरह जानता है। यह किसी दलित से ही पूछिए कि वह इस धर्म के बारे में क्या राय रखता है। नाथद्वारा (राजस्थान) के मंदिर में दलित घुस नहीं पाते, बिहार में दलित बाकी सवर्ण जातियों से पहले वोट नहीं डाल सकते...सुरेश जी, यह हकीकत सभी दलित जानते हैं। पहले उनका दिल जीत लीजिए, सिख भाइयों से कहला दीजिए कि वे हिंदू हैं तब मुसलमानों का दिल जीतने की बात करिएगा। अब बीजेपी केंद्र की सत्ता में आने वाली है, आप अपना एजेंडा उनके सामने रखिएगा, हो सकता है वहां आपकी सुन ली जाए।
अंत में...शैलेश जैदी, साहब की लिखी बातों को सुरेश जी आप फिर से पढ़ें , फिर अपने लिखे विचारों से आप तालमेल बिठाएं...आपको दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होगी। फुल गारंटी है। ...ईश्वर आपको और ऊर्जावान बनाए।

Unknown said...

डाक्टर शैलेश जैदी, पहले तो मैं आपका बहुत धन्यवाद करना चाहूँगा कि आपने समय निकाल कर मेरे ब्लाग पर आए और अपनी बात कही. हिन्दी ब्लोग्धारियों के बीच मुसलमानों के लिए जिस शब्दावाली का प्रयोग हो रहा है मैं उस से कतई सहमत नहीं हूँ, मैं उसे हर हालत में ग़लत मानता हूँ. ऐसा ही मैं हिन्दुओं के लिए जिस शब्दावाली का प्रयोग हो रहा है उस से भी कतई सहमत नहीं हूँ, और उसे भी हर हालत में ग़लत मानता हूँ. विचार विमर्श परस्पर प्रेम और आदर के साथ होना चाहिए. मैंने अपनी एक पोस्ट में हिंसा के तीन रूपों का जिक्र किया है - मानसिक, बैचारिक, कर्म हिंसा. आज हिन्दी ब्लाग जगत में बैचारिक हिंसा बढ़ रही है. इस को रोकना बहुत जरूरी है. बैचारिक हिंसा का अगला पड़ाव कर्म हिंसा है.

आपने पूछा था क्या भारतीय संविधान में किसी मुख्य धारा का उल्लेख है? मेरी जानकारी के अनुसार, शब्द 'मुख्य धारा' का संविधान में प्रयोग नहीं हुआ है. पर यह शब्द अक्सर प्रयोग किया गया है. एक पक्ष यह आरोप लगाता है कि मुसलमान मुख्य धारा में शामिल नहीं होते. दूसरा पक्ष कहता है कि हमें शामिल होने नहीं दिया जाता. कोई इस की व्याख्या नहीं करता. मैं इस के बारे में जो सोचता हूँ उसका जिक्र मैंने अपनी टिपण्णी में किया था - "भारत के सारे नागरिक इस देश की तरक्की में अपनी भागीदारी निभाएं. जो जैसे और जिस रूप में राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सकता है हो. राष्ट्र के लिए कुछ करे, उस पर वोझा न बने. समस्याओं के समाधान में भागीदार हो, ख़ुद समस्या न बने." संविधान मैं कर्तव्यों के बारे में जो कहा गया है उन का पालन एक तरह से मुख्य धारा में शामिल होना हो सकता है.

मैंने कहा है कि मुसलमानों की ज़िन्दगी सुधारने के लिए पहली जिम्मेदारी मुसलमानों की है. केवल मुसलमान ही आगे आयें, ऐसा मैंने नहीं कहा. आपकी यह बात सही है कि यह कोई धर्म का मामला तो है नहीं यह एक सामाजिक दायित्व की बात है. अगर इस समस्या को धर्म से अलग करके देखा आय तो इसे दूर होने में समय नहीं लगेगा, पर कुछ लोग इसे धर्म से अलग नहीं होने देना चाहते. ऐसे लोग मुसलमानों में भी हैं और हिन्दुओं में भी. हम जिस समाज में रहते हैं वह सिर्फ़ हिन्दुओं से नहीं बना, मुसलमान भी उस का उतनी ही महत्वपूर्ण हिस्सा हैं जितने हिंदू. और सभी धर्मों को मानने वाले भी इस समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं.

मैं आपकी इस बात से भी सहमत हूँ कि इस देश में हिन्दुओं की हैसियत मुसलमानों के लिए बड़े भाई की है. बड़े भाई के क्या कर्तव्य हैं यह भी में अच्छी तरह जानता हूँ. शायद इसी लिए मुझे तकलीफ होती है जब यह भाई आपस में लड़ते हैं. मैं मुसलमानों से बहुत कुछ कह देता हूँ, और इस का कारण है कि मैं उन्हें भाई के रूप में देखता हूँ. आप उसी को कुछ कहते हैं जिसे आप प्यार करते हैं.

हिंसा इस देश को खोखला कर रही है. हमें न सिर्फ़ ख़ुद को इस से बचाना है, दूसरों को भी इस से दूर रखने की कोशिश करनी है. यह प्रेम से ही हो सकता है. इसीलिए मैं यही दोहराता हूँ - प्रेम करो सबसे, नफरत न करो किसी से.

Unknown said...

युसूफ किरमानी साह निकाल कर मेरे ब्लाग पर आए और अपनी बात कही. सबसे पहले मैं यह कहना चाहूँगा कि दिल जीतने के लिए कोई प्रायोरिटी लिस्ट नहीं बनाई जाती. मेरे पास ऐसी कोई लिस्ट नहीं है, और मैं ऐसी कोई लिस्ट रखना भी नहीं चाहूँगा जिस में दिल जीतने के लिए मुसलमानों का नाम आख़िर में लिखा हो. अगर मैं आपका दिल जीतने की कोशिश करुँ और आप यह शर्त रख दें कि पहले दलितों का दिल जीत लीजिए, सिख भाइयों से कहला दीजिए कि वे हिंदू हैं तब मुसलमानों का दिल जीतने की बात करियेगा, मैं आपकी बात सुनूंगा पर उस पर अमल नहीं कर पाऊंगा. दलित कौन हैं, सिख कौन हैं, मुसलमान कौन हैं, इस विषय पर अलग से चर्चा की जा सकती है. यहाँ तो मैं इतना ही कहूँगा कि मैं उन की भावनाओं का आदर करता हूँ. जैसे मैं मुसलमानों का दिल जीतने कि कोशिश करता हूँ बैसे ही उनका दिल जीतने की भी कोशिश करता हूँ. सब एक मालिक के बच्चे हैं, भले ही हम उस मालिक को किसी भी नाम से पुकारें.

आपकी टिपण्णी की टोन ने मुझे कुछ घबरा दिया है. काफ़ी डांट लगाई है आपने मुझे. इस घबराहट का कारण है कि मैंने आप के दरबार में दिल जीतने की एक अर्जी लगा रखी है, उसे ऐसे मत खारिज करिए. आप मेरे बड़े भाई हैं, मुझे डांटते रहिये, मेरी गलतियाँ मुझे बताते रहिये. पर आपका दिल जीतने का मौका मुझ से मत छीनिए.

आपने कहा कि मुसलमानों को हिंदुओं से मिलने से रोकने का काम न तो मुशीरुल हसन कर सकते हैं और न ही यूसुफ किरमानी और न ही सुरेश गुप्ता. पर यह लोग उन्हें मिलाने का काम तो कर सकते हैं. बैसे ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो इन्हें मिलने से रोक रहे हैं, और यह लोग हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. मैं भी एक कसबे से आया हूँ. वहां मुसलमानों को हिंदुओं से मिलने से रोकने में यह लोग न सिर्फ़ कामयाब हुए हैं, बल्कि उनके बीच के अन्तर को और ज्यादा बढ़ा रहे हैं.

आपने कहा कि मैं यह मान लूँ कि यह देश सेक्युलर है और सेक्युलर रहकर ही हम विकास कर सकते हैं. आपको यह कैसे लगा कि मैं यह नहीं मानता? यह देश सेक्युलर है, और उस से भी ज्यादा मेरा धर्म सेक्युलर है. मेरा धर्म हर धर्म का आदर करना सिखाता है. मेरा धर्म किसी धर्म को छोटा नहीं मानता. ब, आपका बहुत धन्यवाद कि आप समय

roushan said...

हिंदुस्तान के समाज की जिम्मेदारी सभी हिन्दुस्तानियों की है किसी की पहली और किसी की आखिरी नही.
अमीर किसी भी कौम का हो, हिंदू या मुसलमान वो सामान्यतः अपनी दौलत अपने लिए रखता है हिंदू भी किलेनुमा घर बनते हैं मुसलमान भी.
शायद सच्चर कमेटी इसीलिए बनी थी की वो आपके बताये मुद्दों की तरफ़ ध्यान दे. गुरबत और अशिक्षा में डूबे समाज के हर हिस्से को उठाना सरकार और पूरे समाज का फर्ज है. शायद इसीलिए हम लोक कल्याण कारी राज्य की बात करते हैं और सभ्य समाज की बात करते हैं.
आपकी चिंताओं का हल यही है कि सरकार और समाज मिल कर आगे आए.
हमने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का अध्ययन किया है और पाया है कि वाकई सरकार बहुत कुछ कर सकती है. मुसलमानों कि जिम्मेदारी सिर्फ़ मुसलमानों को देने कि बात का मतलब है हम एक और अलगाव कि बात कर रहे हैं. हम जानते हैं सुरेश जी आप ऐसा नही चाहते होंगे इसलिए चलिए पूरे समाज की बात करें.

युग-विमर्श said...

प्रिय सुरेश जी,
१. यह कि मुख्या धरा की बात राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग ही दोहराते हैं जिन्हें आप भी संकीर्ण और स्वार्थी [अपनी मेल में] स्वीकार करते हैं. यही वह लोग हैं जो यह भी निर्धारित करते हैं कि क्या-क्या हो तो 'मुख्य-धरा' में हैं अन्यथा नहीं. इस शब्द की पुनरावृत्ति करके आप अपना राष्ट्र प्रेमी होना नहीं, राष्ट्र वादी होना साबित करते हैं.
२' आपने स्वयं स्वीकार किया है कि ब्लॉग पर मुसलमानों के लिए अभद्र शब्दावली का प्रयोग हुआ है, साथ ही आपने यह भी लिखा है कि मुसलमान भी ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं. मुझे अधिक नहीं आप केवल एक उदाहरण दीजिये ताकि मैं उसका जमकर खंडन कर सकूँ.
३. 'कहा जाता है' और 'सुना जाता है' या 'आम राय यह है' जैसे प्रयोग पढ़े-लिखे लोगों को शोभा नहीं देते.जिन बातों के लिए आपके पास प्रमाण न हों उन्हें इतने विश्वासपूर्वक आप कैसे लिख देते हैं. जो बातें आप 'कहा जाता है' के माध्यम से लिखते हैं वह केवल हिन्दुत्ववादियों का दृष्टिकोण है. या तो आप खुलकर कहिये कि मैं हिन्दुत्ववादी हूँ और मैं वही कहता हूँ जो दामोदर हरि चापेकर,बाल कृष्ण चापेकर, डॉ. बी. एस. मुंजे और सावरकर बंधुओं ने कहा है या आज अडवानी, तागोडिया आदि कह रहे हैं अन्यथा ऐसी बातें लिखने से परहेज़ कीजिये.
४. मैं तो देखता हूँ कि बहुत सी बातें स्वीकार करने के बाद भी आपका स्वर वही का वही रहता है.ब्लॉग पर सबका मालिक एक है लिखते है और अल्लाह और ईश्वर की बैठकें कराते हैं.
मैं आपके लिए केवल दुआ कर सकता हूँ. आशा है आप सपरिवार स्वस्थ एवं सानंद हैं.

adil farsi said...

मेरे मत से लोग उद्देशय से भटक गये हैं कमी कुरान और गीता में नहीं.. हम सब में है

Unknown said...

रोशन जी, मैं अलगाव की बात नहीं करता. मैं मुसलमानों की जिम्मेदारी सिर्फ़ मुसलमानों को देने की बात भी नहीं करता. लेकिन कुछ तो जिम्मेदारी है मुसलमानों की मुसलमानों के लिए. हर बात के लिए मुसलमान समाज और सरकार के भरोसे नहीं बैठ सकते. उनकी कुछ अपनी भी जिम्मेदारी बनती है समाज सुधार के लिए, उन मुसलमानों के लिए जो गरीब हैं, बीमार हैं, लाचार हैं, अशिक्षित हैं. लोग उनकी तकलीफों के बारे में बहुत कुछ कहें पर उनकी तकलीफ दूर करने के लिए ख़ुद कुछ न करें. उनकी तकलीफों को आधार बना कर भेद-भाव की बात करें, सरकार पर और समाज पर तोहमत लगाएं पर ख़ुद उनके लिए कुछ न करें. यह बात मेरी समझ में नहीं आती.

Unknown said...

डाक्टर शैलेश जैदी, शब्द 'मुख्य धारा' मैंने ईजाद नहीं किया. मैंने अपनी बात काफ़ी सफाई से कही है. एक बार फ़िर कहता हूँ. हर नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह समाज की एक प्रोडक्टिव यूनिट बने, समाज पर वोझ न बने, वह समस्याओं के समाधान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाये, ख़ुद समस्या न बने. मैं यह बात ऐसे ही नहीं कह रहा हूँ. इस में मेरा स्वार्थ है. जब अधिकाँश नागरिक समाज की एक प्रोडक्टिव यूनिट बनेंगे तब समाज तरक्की करेगा. लोगों का जीवन सुखी होगा. वह एक इज्जतदार जिंदगी गुजार सकेंगे. देश में अमन-चैन होगा. इस के लिए जरूरी है सब शिक्षित हों, स्वस्थ हों, प्रगति का फल सब को बराबर मिले.

मैंने पहले ही कहा है कि मैं किसी 'वाद' में यकीन नहीं करता. मैं अपनी बात कहता हूँ. आप मुझे किसी और के कारण कटघरे में खड़ा मत कीजिए. मैं एक हिंदू हूँ. हिंदुत्व या हिन्दुवाद जैसे शब्द मेरे धर्म में नहीं हैं.

मैं इस देश का एक नागरिक हूँ. मेरा सम्बन्ध दूसरे नागरिकों से तीन स्तर पर है - व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय. इस सन्दर्भ में, मैं अपनी एक बहुत पुरानी पोस्ट के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ -
"My relationship with all other Indians is on three levels – personal, social and national.
On personal level the relationship is based on the principles of humanity, as I am a human being and so all other Indians.
On social level the relationship is based on the principles of peaceful co-existence, as I am a part of the Great Indian Society and so all other Indians.
On national level the relationship is based on the principles of love and respect for the nation, as I am a citizen of Great Indian Nation and so all other Indians."

Unknown said...

@"मैं तो देखता हूँ कि बहुत सी बातें स्वीकार करने के बाद भी आपका स्वर वही का वही रहता है.ब्लॉग पर सबका मालिक एक है लिखते है और अल्लाह और ईश्वर की बैठकें कराते हैं. मैं आपके लिए केवल दुआ कर सकता हूँ."

डाक्टर शैलेश जैदी, आप ऐसी भाषा प्रयोग क्यों करते हैं? क्या आप मुझे छोटा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं? कौन सी बात किस सन्दर्भ में कही जाती है उसे समझने का प्रयास करें.

मैंने स्वीकार किया है कि ब्लॉग पर मुसलमानों के लिए अभद्र शब्दावली का प्रयोग हुआ है. मैंने इसे स्वीकार किया, मेरे अन्दर यह स्वीकार करने कि हिम्मत है. पर शायद आप वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. मुसलमान भी ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं इस का सबूत मांग कर आप क्या दर्शाना चाहते हैं? मैं आपको केवल एक उदाहरण दूँ ताकि आप उस का जमकर खंडन कर सकें. मतलब यह कि मैं जो भी उदाहरण दूँगा आप पहले से ही तय कर चुके हैं कि उस का जम कर खंडन करेंगे. यह कैसा सोच है - दोष केवल हिन्दुओं का है, मुसलमानों का कोई दोष नहीं है? ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती डाक्टर साहब.

मुझे दुःख है कि मुझे यह सब लिखना पड़ा. प्रोडक्टिव विचार विमर्श का आधार परस्पर प्रेम और आदर है.

युग-विमर्श said...

प्रिय सुरेश जी,
आप रिएक्ट कर गए. मैं ने अभद्र शब्दावली का प्रयोग करने वाले मुसलमान का उदहारण इस लिए माँगा था ताकि उसका अर्थात उस मुसलमान का खंडन कर सकूँ. आपने यह अर्थ किस प्रकार निकाल लिया कि मैं आपका खंडन करूँ.

roushan said...

सुरेश जी हमने इसी अलगाव की बात की थी जो आपके उत्तर में झलक रहा है. आपकी मंशा क्या है ये तो हम नही जान सकते हैं न बस शब्दों के मायने क्या हैं यही देखना सम्भव हो पाता है और आपके शब्दों के मायने आपकी तमाम कोशिशों के बाद भी अलगाव वाले नजर आते हैं हमें हो सकता है हमारा नजरिया ग़लत हो पर हमने यही महसूस किया.
आपमें और हममे फर्क यही है आप जिम्मेदारी का बटवारा चाहते हैं और हम साझेदारी
आप समझते हैं कि एक समुदाय सिर्फ़ समाज और सरकार पर दोषारोपण कर रहा है ख़ुद कुछ नही कर रहा है और हमें लगता है कि ये दोषारोपण नही अपेक्षा है और वाजिब अपेक्षा .
हमें महसूस होता है कि धनिक किसी भी समुदाय के हों अपने स्वार्थ के बिना कुछ कदम नही बढायेंगे आप बताईये अगर मुसलमान धनिकों ने अपने समुदाय के लिए कुछ नही किया तो कौन से हिंदू, सिख या इसाई धनिक ने बहुत परोपकार के काम किये हैं.
सबसे अधिक पैसे वाले प्रतिशत के हिसाब से पारसियों में हैं उन्होंने अपने सिर्फ़ अपने समुदाय के लिए क्या किया है.
मुआफ़ी चाहेंगे पर फ़िर वही अलगाव कि बात आगे आती है.
सुरेश जी समय समय पर हम आपका और लेख भी देखते रहे हैं और हर जगह हमने वही अलगाव पाया है बस अंत में प्रेम सबसे करो नफरत किसी से नही करने से इतिश्री नही हो जाती बल्कि अंत के पहले भी कुछ ऐसा होना पड़ता है.
हमें महसूस होता आया है कि आप उस अंत के पहले वाले विश्वास बहाल करने वाले नजरिये को को नही रख पाते .
हम फ़िर कहना चाहेंगे कि इस देश की साड़ी समस्याएं हम सब की हैं और समग्रता में इसके निवारण के प्रयास होने चाहिए न कि हिंदू मुस्लिम झगडों और एक दुसरे पर जिम्मेदारी थोपने कि परिपाटी.
सुरेश जी आप बड़े हैं और आपसे कड़वा बोलना हमें अखरता है उम्मीद है छोटा समझ के क्षमा करते रहेंगे.

Unknown said...

रोशन जी, मुझे तो ख़ुद में या आपमें या किसी और में कोई अलगाव नजर नहीं आता. अलगाव तब नजर आता है जब हम ख़ुद को दूसरों से अलग करके सोचते हैं, जब हम यह महसूस करते हैं कि हमारी और दूसरों की समस्यायें और उनके समाधान विपरीत हैं. हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बोद्ध, जितने समुदायों के लोग इस देश में रहते हैं, सब बराबर हैं. सब इंसान हैं, इस लिए सबकी जरूरतें एक हैं.

परिवार, समाज, देश, यह सब एक संस्था हैं. हम सब इन संस्थाओं के सदस्य हैं. संस्थाओं को चलाने की जिम्मेदारी सबकी है. इस जिम्मेदारी का बटवारा या साझेदारी (जो शब्द चाहे प्रयोग करें) तो होना जरूरी है, तभी संस्था चलेगी. सब अपनी जिम्मेदारी निभाएंगे तभी इनके उद्देश्य पूरे होंगे. एक व्यक्ति भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएगा तो प्रबंध बिगड़ जायेगा. मैं उद्योगों में प्रबंध पद्धतियों पर सलाहाकार हूँ. पिछले कई दशकों से यही काम कर रहा हूँ. सैंकड़ों उद्योगों में काम कर चुका हूँ. जिम्मेदारी और अधिकारों का समुचित बंटवारा और उनका सही विर्वाहन बहुत जरूरी है.

आप पारसियों की बात कर रहे हैं. कोई भी हो उसे अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए. सबसे पहली जिम्मेदारी अपने परिवार के लिए है, फ़िर रिश्तेदारों के लिए, इष्ट-मित्रों के लिए, फ़िर समाज और फ़िर देश के लिए. सामर्थ्यवान मुसलमानों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार असमर्थ मुसलमानों की सहायता करें. उन्हें सामर्थ्यवान बनने में अपना योगदान दें. मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि आप लोग इस के ख़िलाफ़ क्यों हैं?

'प्रेम करो सबसे, नफरत न करो किसी से', मेरे लिए यह महज एक वाक्य नहीं है. यह मेरे अनुभवों का निचोड़ है. प्रेम मन को एक अद्भुत आनंद से भर देता है. नफरत मन में तनाव पैदा करती है, हिंसक विचार पैदा करती है. जब हम प्रेम और नफरत में से एक को चुन सकते हैं तो प्रेम को क्यों न चुनें.

Unknown said...

"आप रिएक्ट कर गए." यह भी आपने भली कही डाक्टर साहब.

Anonymous said...

Mr. Gupta,hats off to you. These people are talking all sort of things but you still trying to extend the hand of friendship, love and respect.

Unknown said...

डाक्टर जैदी, आपने अभद्र शब्दावली का प्रयोग करने वाले मुसलमान का उदहारण माँगा था ताकि उसका अर्थात उस मुसलमान का खंडन कर सकें. एक ऐसा उदहारण प्रस्तुत कर रहा हूँ. अभी मैंने एक ब्लाग पर इसे देखा है.

"यह पोस्ट आज़मगढ़ निवासी फ़रहान आज़मी द्वारा "मेरा दिल" नामक ब्लॉग पर लिखी गई है। आप वहाँ टिप्पणी नहीं कर सकते, तो कोई बात नहीं यहाँ अपनी बात टिप्पणी के रूप में लिखें।
मूल पोस्ट :
श्री लालू जी को सादर प्रणाम और सलाम
एक आप ही ऐसे नेता हैं भारत में जिस पर मुस्लमान आंख बंद कर के भरोसा कर सकता है, और इसलिए मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ की जिस तरह से ये हिंदू कट्टर पंथी संगठनो की एक बाढ़ सी आगई है, जैसे रास्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद्, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, और शिवसेना जैसे नापाक और देश में सांप्रदायिक भेदभाव को बढ़ाने वाले कृत्या और अपराध को बढ़ावा देने वाले। अडवाणी और नरेद्र मोदी जैसे रावण आज भी जन मानस के बीच जीवित हैं और उत्पाद मचा रहे हैं, भारत में हर घटने वाली हर नापाक घटना के जिम्मेदार ये ही हैं। इसलिए आपसे निवेदन है की वक्त रहते इन रावण जैसे देशद्रोहियों का सर्वनाश हो जाना चाहिए अन्यथा देश सम्प्रदिय्कता की गहरी खाइ में गिर जाएगा और हिंदू और मुस्लिम एक दुसरे के दुश्मन बन जायेंगे और प्रगतिशील देश पिछडे देश में शुमार होने लगेगा, आज मुस्लमान का हर कोई दुश्मन प्रतीत हो रहा है सिमी के नाम पर देश के प्रतिभाशाली नवजवानों को गिरफ्तार कर के जेलों में बंद कर के भारत की प्रतिभा को मिटाया जा रहा है। जब से अडवाणी ने जन्म लिया है तब से भारत में आतंकवाद और साम्प्रदयिक दंगों का भी जन्म हुआ है। जो कह नहीं सका और जो कहने को बाकि है उसको भी उम्मीद है की आप मेरे दिल के उद्गारों को समझेंगे और मसले को सुलझाने का प्रयत्न गाँधी जी के आदर्शों पर चलते हुए करेंगे ।
भारत देश का एक कमज़ोर और मजलूम नागरिक फरहान अहमद, जेद्दाह , साउदी अरेबिया"

roushan said...

आपके विचार आपकी गवाही देते हैं सुरेश जी कि आप कितना अलगाव की बातें करते हैं याद कीजिये कैसे आप मुस्लिम धन को सिर्फ़ आतंक के रास्ते में बताते हैं खैर आत्मावलोकन सबके बस की बात नही है
प्रबंधन की जानकारी हमें भी है और हम अह्छी तरह से जानते हैं कि प्रबंधन समाज में लागू नही हो सकता आपकी सलाह छोटे छोटे संस्थानों में मार्के की हो सकती है पर समाज में नही.
आपकी हर अंग की जिम्मेदारी वाली बात उचित है और हम मानते हैं कि हमारे समाज के सभी अंग पूरी तरह से अपना काम नही कर रहे हैं
उसमे सरकार भी आती है और नागरिक समाज के लोग भी.
क्षमा करे पर अल्पसंख्यक और बहु संख्यक बँटवारे में हमारा विश्वास नही है

Unknown said...

तो आपके अनुसार आत्मावलोकन हमारे बस की बात नही है, पर आप के बस की बात तो है. आप ही आत्मावलोकन करें और कुछ ऐसा कहें जो अलगाव की जगह मिलने की बात करता हो. उस से प्रेरित होकर शायद, आपके अनुसार जो अलगाव हम में है, दूर हो जाय.

प्रबंधन के सिद्धांत हर संस्थान में लागू होते हैं, चाहे वह छोटा हो या बड़ा. सरकारी हो या गैर-सरकारी. जिम्मेदारी का एहसास और जिम्मेदारी निभाना तो प्रबंध का मुख्य हिस्सा है. आज समाज में जो भी समस्यायें हैं उसका कारण ही यह है कि सब नागरिक और सरकार अपनी-अपनी जिम्मेदारी सही रूप में नहीं निभा रहे हैं. सारी दुनिया में सामजिक जिम्मेदारी का जो मान्य मानक है, एस ऐ ८०००, आज भारतीय समाज में पूरी निष्ठा से लागू किया जाना चाहिए. यह अगर हो जाए तब समाज के हर हिस्से से सारी विषमताएं दूर हो जायेंगी.

आप अल्पसंख्यक और बहु संख्यक बँटवारे में विश्वास नही करते, यह तो बहुत ही अच्छी बात है. लेकिन अल्पसंख्यक होने के सारे फायदे मुस्लिम समुदाय उठा रहा है. आज देश में एक समान कानून भी नहीं बन पाया है. जमायत उलेमा-ऐ-हिंद ने कल ही मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग की है.

रौशन जी, अगर हम पूर्वाग्रह को त्याग कर सोचें तो अच्छा होगा. भूतकाल में ही फंसे रहकर, वर्तमान में झगड़ते रहे तो वर्तमान तो सुखद नहीं हो पा रहा, भविष्य भी सुखद नहीं हो पायेगा.