लोग उन्हें गुरूजी कहते हैं,
पर काम उनके 'भाई' जैसे हैं,
कुर्सी से बहुत प्यार हैं उन्हें,
पर कुर्सी बार-बार दगा दे जाती है,
पहले अदालत ने छीनी थी कुर्सी,
अब छीन ली जनता ने.
बचपन में पढ़ा था,
आम बोओगे तो आम मिलेंगे,
बबूल बोओगे तो बबूल,
पर हकीकत कुछ और निकली,
बोया था हमने प्रजातंत्र,
पर उग आया कंटीला राजतंत्र.
उन्होंने कर दी हड़ताल,
गर्व से दिया नारा,
'जाम करेंगे देश का चक्का',
हम तुम्हारे साथ हैं बोले तेलकर्मी,
आतंक के वह साठ घंटे,
अभी भूल नहीं पाया था देश,
यह नया आतंक शुरू हो गया.
उम्र क्या होती है?
अनुभव क्या होता है?
कुर्सी पर बैठते ही,
सब कुछ आ जाता है,
उनके पिता जी चालीस के थे,
वह भी चालीस के लपेटे मैं हैं,
सही उम्र है प्रधानमंत्री बनने की.
3 comments:
achhi kavita hai.
लोकतन्त्र में पूरा विश्वास है, लेकिन गद्दी पुत्तर को ही मिलेगी.
मुर्ख है जनता जो बिना सोचॆ इन के साथ चलती है, ओर फ़िर पांच साल सिसक सिसक के रोती है...
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