स्वप्न,
एक वरदान मानव को ईश्वर का,
यथार्थ का दर्पण, या
मात्र एक कोरी कल्पना,
इंगित भविष्य का, या
मात्र अभिव्यक्ति अपूर्ण इच्छाओं की पूर्णता की,
परिचायक शांत गहन निद्रा का, या
एक मानसिक विकृति?
स्वप्न,
अच्छे, बुरे, गुदगुदाते,
डराते, हंसाते, रुलाते,
कोई बंधन नहीं,
देश, समाज, जाति, धर्म,
उंच-नीच, काला-सफ़ेद,
सब स्वतंत्र स्वप्न देखने को,
सोते, जागते, हर समय.
स्वप्न,
एक अलग ही संसार,
अंतर्मन के रंगमंच पर,
स्वयं रचित नाटक पर अभिनय,
छिपती रहती बाह्य जगत में,
जो मन की कोमल इच्छाएं,
तरह-तरह के रूप बदल कर,
नर्तन करतीं, गर्जन करतीं,
चाहतीं वह सब कुछ पा लेना,
नहीं मिला जीवन में अब तक.
6 comments:
स्वप्न, अपनी मन की इच्छाओं को देखने का एक रास्ता है। जो सच में वरदान है भगवान का।
बहुत अच्छी तरह से आपने स्वप्न को व्यक्त किया है।
अति सुन्दर विश्लेषण स्वप्न का.
सही है ... बहुत सुदर लिखा ।
ahut sunder vyakhya, achchi lagi.
स्वप्नों को केन्द्र में रखकर बहुत सुंदर कविता लिखी है आपने, बधाई।
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